हिन्दू तीर्थ: मुसलमान पुजारिन! प्राणान्तक पीड़ादायी गर्भ परिक्रमा और अजानी प्रौढ़ता की अनुभूति (कच्छ का पदयात्री - आठवाँ भाग)



सबसे ज्यादा आश्चर्य और सुख की बात यह है कि हिंगलाज माता का पुजारी सदा-सदा से मुसलमान होता आया है। कहा यह जाता है कि मुसलमान धर्म में मूर्ति-पूजा को कोई मान्यता नहीं है पर हिंगलाज माता जाकर कोई देखे कि वहाँ मुसलमान मूर्ति-पूजा करता है और अब भी वहाँ यही होता होगा। और भी विशेष बात यह है कि हिंगलाज माता की मूल पूजा कोई पुरुष नहीं कर सकता है। सो, वहाँ पुजारी नहीं हो कर पुजारिन हुआ करती है। मैं गया तब भी वहाँ की पुजारिन एक महिला थी। वह मुसलमान थी। मन्दिर के आसपास कनेरों के सघन झाड़ हैं। बड़ी मात्रा में कनेर यहाँ पैदा होती है। कनेर के वन के वन हैं। एक साथ इतनी कनेर मैंने इससे पहले न तो देखी थी न इसके बाद।

‘हिंगलाज माता की मूर्ति खड़ी या बैठी नहीं है। यह मूर्ति लेटी हुई है। मूर्ति की चौकी के आस-पास, चारों ओर सँकरा, तहखाने जैसा परिक्रमा मार्ग है। इसके भीतर एक लौ सतत् जलती रहती है। 


हिंगलाज माता की मूर्ति की छवि  (चित्र गूगल के सौजन्य से)

‘पूजा की विधि यह है कि रात बारह बजे के बाद अगुआ स्नान करता है और मन्दिर में प्रवेश करता है। मूर्ति पर एक कपड़ा ढँका रहता है। यह कपड़ा, हिंगलाज माता की चुनरी माना जाता है। जो भी यात्री-दल आता है, वह अपने दल की ओर से अगुआ के हाथों वह चुनरी हिंगलाज माता को चढ़वाता है। जैसे ही अगुआ भीतर आता है, वह माता की जय बोलकर कुछ मन्त्र बोलता है और पूर्व दल द्वारा चढ़ाए गए वस्त्र को हटाकर अपने दल की ओर से अर्पित की जानेवाली चूनर, माता की मूर्ति पर चढ़ा देता है। मूर्ति को निर्वसना कभी नहीं रखा जाता है। उतारा गया वस्त्र महिला पुजारी ले लेती है। यह चढ़ावा उसका माना जाता है। इसके बाद अगुआ सारे दल को अपने-अपने शरण भाइयों के साथ परिक्रमा के लिए सन्नद्ध कर देता है। उस तहखानेनुमा परिक्रमा-गर्भ में न तो बैठे-बैठे परिक्रमा होती है, न खड़े-खड़े। यह सार परिक्रमा लेटे-लेटे करनी होती है। मूर्ति जिस चबूतरे पर प्रतिष्ठित है वह कोई ज्यादह लम्बा या चौड़ा चबूतरा नहीं है। उसकी लम्बाई और चौड़ाई अधिकाधिक दस-दस फुट होगी। अगुआ एक-एक यात्री का नाम पुकारता है और वह यात्री अपने शरण भाई को आगे करके मूर्ति के चरणों की तरफ जाकर शरण भाई के पीछे खड़ा हो जाता है। अगुआ कुछ मन्त्र बोलता है और शरण भाई लेट जाता है। लेटे-लेटे ही वह गर्भ में प्रवेश करता है। उसके पीछे तत्काल यात्री भी लेटकर गर्भ में प्रविष्ट हो जाता है। भीतर जलने वाली मद्धिम लौ का हल्का-हल्का प्रकाश और गर्भ के मोड़ों पर विचित्र-सा अँधेरा। कुल मिलाकर आँखें मुँद जाती हैं और गर्भ की दीवारों को हाथों से टटोलते हुए शरण भाई के पीछे यात्री को यह परिक्रमा पूरी करनी होती है। जब तक दोनों यात्री बाहर नहीं निकलते तब तक दूसरा शरण भाई अपने यात्री को पीछे लिए प्रतीक्षा में खड़ा रहता है। अगुआ मन्त्र बोलता रहता है। बाहर प्रतीक्षारत यात्री या तो गीत गाते रहते हैं या फिर सन्नाटा छा जाता है। सब अपनी-अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हैं।

‘ज्यों ही शरण भाई गर्भ से बाहर आता है वह जाकर सीधा उस मुसलमान पुजारिन की गोद में सो जाता है। पुजारिन अपने साथ एक विशेष प्रकार का पेय तैयार लाती है। इसे गुड़ला कहते हैं। गुड़ला वह पेय होता है जो पैदा होते ही दाई बच्चे को पिलाती है, जिसे हम घुट्टी कह सकते हैं। इसका स्वाद तीखा और विचित्र-सा होता है। हर यात्री को पुजारिन की गोद में लेटकर गुड़ला पीना होता है। गुड़ला पिलाकर पुजारिन यात्री को गोद से खड़ा करके आशीर्वाद देती है। यह सारी प्रक्रिया गुसाई पंथ में पुनर्जन्म की प्रक्रिया मानी जाती है। मूर्ति के आसपास गर्भ-परिक्रमा को माँ के गर्भ का प्रतीक माना जाता है। उस गर्भ-गुफा में यात्री को जो पीड़ा होती है और जिस प्रकार दम घुटता है उसका वर्णन तो मैं कर ही नहीं सकता। यदि इस परिक्रमा का आधार धार्मिक, अध्यात्मिक न हो तो कुबेर का खजाना लेने के मोल भी कोई उसमें प्रवेश नहीं करे। हालाँकि आज तक उस गर्भ में एक भी यात्री के मरने का समाचार नहीं सुना पर फिर भी पहली ही साँस पर लगता है कि अब जीवित बाहर नहीं निकला जा सकेगा। शरण भाईं की साँसों और हिंगलाज माता के दर्शन का सहारा ही यात्री का गर्भ-पाथेय होता है। पुजारिन माता की घुट्टी में जड़ी-बूटियों का जीवनदाता पानी होता है। उसको पीकर यात्री अपने आपको कृतार्थ और अपनी यात्रा को सफल मानते हैं। 

जब यात्रीगण यह परिक्रमा पूरी कर लेते हैं तब अगुआ हिंगलाज माता के मन्दिर की एक दीवार पर बैठ जाता है और एक नया नारा लगाता है। यह नया नारा यात्रा की समाप्ति और दल के वापस लौटने का सूचक होता है। वहीं बैठे-बैठे अगुआ सब यात्रियों को तोड़े पहनाता है। तोड़े का मतलब है माला। एक तोड़ा एक-एक हज़ार मणियों का होता है। ये मणियाँ काफी छोटी-छोटी होती हैं। अगुआ कराँची से ही मालाएँ साथ लेकर चलता है। एक-एक माला यात्री के गले में डाल देने के बाद वह पचास-पचास मणियों की एक-एक छोटी माला हर यात्री को देता है। ये छोटी मालाएँ प्रत्येक यात्री वहाँ पर फली-फूली कनेर को पहना देता है। कनेर को वह माला पहनाते ही सब कनेर उस यात्री की बहन मान ली जाती हैं। यात्री को वहाँ यह व्रत लेना पड़ता है और घोषणा करनी होती है कि वह आजीवन कनेर का फूल नहीं तोड़ेगा, न कनेर को वह सतायेगा। जो छड़ी अगुआ कराँची से लेकर चलता है, वह यहाँ रोप दी जाती है। इस प्रकार इस यात्रा में गुरु, शरण-भाई के नाम पर भाई और घुट्टी पिलानेवाली माता तथा बहन के रूप में कनेर - यात्री को सब-कुछ प्राप्त हो जाता है। एक नया परिवार उसका बन जाता है और उसका जन्म सफल मानकर गर्भ-गुफा से अवतरित होने के पश्चात् उसका दूसरा जन्म शुरु माना जाता है। ये रिश्ते और मान्यताएँ यात्रीगण  आजीवन पालते हैं। हिंगलाज माता के मन्दिर पर न तो खाना बनाया जा सकता है, न चूल्हा-चौका होता है। वहाँ पानी भी नहीं पिया जा सकता है। कनेर को भी बहन बनाने के बाद उसी अगुआ की अगुआई में यात्रा का दूसरा चरण शुरु होता है। यह वापसी भी बड़ी विचित्र होती है। जिस रास्ते से यात्री मन्दिर पर आते हैं उसी रास्ते से वापस लौटना मना है। उधर से वापस नहीं जा सकते हैं। हम सबने अपनी इष्टदेवी को याद किया, अगुआ बालभारती ने अपने धामिक मन्त्रों का पाठ किया तथा हमारा दल हिंगलाज माता को पीठ देकर यात्रा के दूसरे चरण के लिए लौट पड़ा। मुझमें एक अपूर्व ताजगी थी और अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेने की किशोर-सुलभ विजय-भावना भी। मुझे लगता था कि मेरा मानसिक कद बढ़ गया है। एक अजानी प्रौढ़ता मुझे अपने आप में विराजती लगी। मुझे लगा कि अब मैं निरा बच्चा नहीं हूँ और पंथ के प्रति मेरी कुछ जिम्मेदारियाँ हैं। यह प्रौढ़ता मुझे मानसिक रूप से कसती जा रही थी, पर इसके विपरीत मेरे शरीर पर आती हुई जवानी के पहले ज्वार ने मेरे अंग-अंग को गुलाबी पोत दिया था। आप देख रहे हैं कि मेरा कद ठिगना है पर मुझे लगा कि मैं कुछ गोलाई ले रहा हूँ। बदन की माँसपेशियाँ अधिक कसीली हो गयी हैं। भूगोल के विभिन्न पहलुओं ने मुझे प्रबल शक्ति दी है और ये पहाड़, नदियाँ और रेगिस्तान मेरे लिए पौष्टिक प्राश सिद्ध होते जा रहे हैं। पाँवों में वेग आ गया था। मुँह पर मूँछें मसमसाकर फूट आई थीं। दाढ़ी का दबदबा सहयात्रियों पर पड़ने लगा था। चेचक के दाग भर-से गए थे और मेरी नजर में ललाई की रंगत मुझे खुद को ज्यादा लगती थी। धरती, आसमान और समन्दर, इन सबने मिलकर भरपूर नमक मेरे बदन पर मसल दिया था। बार-बार मैं अपने भगवा कपड़ों को देखता था और गले में पड़ी रुद्राक्ष की माला तथा गुरु का दिया हजार-मणियों का तोड़ा रह-रहकर मेरी उँगलियों में खेलने लग जाते थे। न मैं अनमना था, न वाचाल। एक स्थान पर अधिक समय तक रहना अब मेरे शरीर ने मना जैसा कर दिया था। मैं चाहता था कि मैं सिर्फ चलता रहूँ, चलता रहूँ, वहाँ तक चलता रहूँ जहाँ तक कि मैं थककर चूर नहीं हो जाऊँ और हर तरह की थकानें अब मुझसे थक गयी लगती थीं।

‘हिंगलाज माता की जय के साथ हमारे पाँव वापस कराँची के लिए उठे। हिन्दूकुश पर्वत की नयनाभिराम श्रेणियों पर अब हम विपरीत दिशा की ओर चले। यहाँ से हमें फारस की सीमा पर जाना था। हिंगलाज माता वाला पहाड़ बलूचिस्तान की सीमा में है और तब भारत में था। फारस तब भी भारत से अलग देश था और आज भी अलग है। एक तरह से यह मेरी पहली विदेश-यात्रा थी, यह मान लें तो भी मुझे कोई आपत्ति नहीं है। न किसी के पास पासपोर्ट, न कोई रोक-टोक। उधरवाले भी सब जानते थे कि हम यात्री हैं और हिंगलाज का हर यात्री, यह यात्रा इसी प्रकार करने को विवश है।’
 

 





किताब के ब्यौरे -
कच्छ का पदयात्री: यात्रा विवरण
बालकवि बैरागी
प्रथम संस्करण 1980
मूल्य - 10.00 रुपये
प्रकाशक - अंकुर प्रकाशन, 1/3017 रामनगर,
मंडोली रोड, शाहदरा, दिल्ली-110032
मुद्रक - सीमा प्रिंटिंग प्रेस, शाहदरा? दिल्ली-32
कॉपीराइट - बालकवि बैरागी



यह किताब, दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती रौनक बैरागी याने हम सबकी रूना ने उपलब्ध कराई है। रूना, राजस्थान प्रशासकीय सेवा की सदस्य है और इस किताब के यहाँ प्रकाशित होने की तारीख को, उदयपुर में, सहायक आबकारी आयुक्त के पद पर कार्यरत है।

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