आत्मदाही का वक्तव्य

श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्र्रह
‘मन ही मन’ की आठवीं कविता

यह संग्रह नवगीत के पाणिनी श्री वीरेन्द्र मिश्र को समर्पित किया गया है।




आत्मदाही का वक्तव्य

माँ!
पहिला ऋण मुझ पर है तेरा
मेरा तो ईश्वर है तू ही।
रखा गर्भ में नौ महीनों तक
जन्म दिया माँ!
दूध पिलाया
पाला पोसा, लाड़ लड़ाया
शब्द दिये
फिर भाषा देकर वाणी भी दी
तूने ही संस्कार दिए माँ!
बड़ा किया
अपने पाँवों खड़ा किया
फिर तरह-तरह के संघर्षाे से
किया रू-ब-रु।
जीवट दी जग से लड़ने की।
मेरी इस कंचन काया पर
सबसे पहिला हक तेरा है।।
तू ही मेरी धात्री है माँ।
तू मेरी निर्मात्री है माँ!
जैसा भी हूँ
तेरा हूँ माँ।
आदर्शाे के आराधन का
गूढ़ अर्थ तूने ही खोला
तूने ही मतलब समझाया
क्या होती है दुनियादारी।
तेरी ऊँगली थाम-थाम कर
विन्ध्याचल लाँधे दुखड़ों के।
समता और विषमता की
हर लछमन रेखा
तू ने ही समझाई मुझको।
समझाए संघर्ष सूत्र सब।
आज सयाना बेटा तेरा
खड़ा हुआ हूँ चौराहों पर
पढ़ा लिखा हूँ
समझदार हूँ
जीवन की हर अग्नि परीक्षा
देने को तत्पर तैयार हूँ।
कुटिल व्यवस्था
जटिल जिन्दगी
हर नक्षत्र हुआ है दुश्मन
कुछ भी तो अनुकूल नहीं है
रह रहकर मन करता है माँ!
ऐसा-वैसा कर गुजरूँ कुछ
पता नहीं क्या होता सचमुच।
स्वप्न महल जब-जब भी ढहता
भावुक मन में लावा बहता
प्राण-पखेरू उसमें दहता।
लेकिन जननी!
नहीं लजेगा तेरा आँचल
पल-प्रतिपल हुँकार भरूँगा
तेरी कोख नहीं हारेगी
दुनिया मुझको क्या मारेगी?
ललकारूँगा हर बाधा को
मेरा जीवन तेरी थाती
मैं हूँ दीपक तू है बाती।
तुझसे पूछे बिना आज मैं
खुद को सुलगा लूँ, धधका लूँ?
तेरे दिये हुए कंचन में
अपने हाथों आग लगा लूँ?
तू ही लोरी गाती थी माँ!
गाकर मुझे सुलाती थी माँ!
शब्द आज भी स्पन्दन देते
माँ! उस लोरी के स्वर के
कोई गायक, कोई भी कवि
गीत नहीं गाता कायर के।
खड़ा हुआ मैं चौराहों पर
तेरी भाषा बोल रहा हूँ
अपना अन्तर खोल रहा हूँ
तेरा पुण्य गवाऊँ क्यों कर?
तेरा दूध लजाऊँ क्यों कर?
यह
आत्मबोध का सूर्याेदय है
भैरव का आह्वान करूँगा
वचन तुझे देता हूँ जननी
कायर जैसा नहीं मरूँगा।
तेरे पय को पीने वाला
ऐसी मौत नहीं मरता है
आत्मदाह का मतलब मैंने
समझ लिया है
कायरता है।
माँ!
पहिला ऋण मुझ पर है तेरा
मेरा तो ईश्वर है तू ही
ओ मेरी धात्री! निर्मात्री!!
ईश्वर से ऊपर है तू ही।
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संग्रह के ब्यौरे
मन ही मन (कविता संग्रह)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - पड़ाव प्रकाशन 
46-एल.आय.जी. नेहरू नगर, भोपाल-462003
संस्करण - नवम्बर 1997
मूल्य - 40 रुपये
आवरण - कमरूद्दीन बरतर
अक्षर रचना - लखनसिंह, भोपाल
मुद्रक - मल्टी ग्राफिक्स, भोपाल










यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। 
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। 
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।








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