अहिन्दू देश में पौराणिक स्थान, अनिच्छुक वापसी ने करवा दी कच्छ की पद-यात्रा (कच्छ का पदयात्री - नौवाँ भाग)



दादा की बातों से अब साफ लगता था कि कच्छ की पैदल यात्रा का हिस्सा आगे है। हम सबने चाहा कि दादा जरा.सा विश्राम ले लें ताकि उनकी बातों में जरा ताजगी आ जाये। पर दादा थे कि अविराम कहे चले जा रहे थे। बीच.बीच में दादा विभोर होते थेए रोमांचित होते थे और पुरानी यादों में खो-से जाते थे। पर वे आज एक अफसर हैं और हम सब उनके सामने कच्ची उम्र के लोग बैठे थे। सोए वे अपने मनोभावों को छिपाते हुए भी रंगे हाथों पकड़े जा रहे थे। अपनी घनी भौंहो को वे जब सहलाते तो मैं समझ जाता कि दादा अब फिर एक ताजगी लेकर बात आगे बढ़ा देंगे। हुआ भी यही। वे फिर आगे बढ़े -

'जिस पहाड़ पर हम चल रहे थेए वह एक प्रकार का पठार है। इसे आप अंग्रेजी जानने वाले 'टेबल लैण्ड' भी कह सकते हैं। हिंगलाज यात्रियों के लिए यहाँ कई महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थान थेए जैसे नानक चबूतराए कबीर स्थानकए पाण्डवों की गुफाएँ आदि। उस जमाने में एक अहिन्दू देश में पहली बार मुझे अपने पौराणिक और सांस्कृतिक नामों के आधार पर बने हुए स्थान देखकर रोमांच हो आया। मैं तो यह सोच भी नहीं सकता थाए न मैं भूगोल जानता थाए न इतिहास। लोकगीत ही मेरे गुरु थे और मेरी लाइब्रेरी भी तब तक केवल लोकगीत और रमते साधु.सन्त थे। उन्होंने कभी मुझे यह ज्ञान नहीं कराया था। पर जब बालभारती ने एक कुशल गाइड की तरह हमको बताया कि अब हम भारतवर्ष की सीमा से बाहर हैं तो मैं सिहर गया। यह सिहरन आनन्द और हर्ष की थी। इस स्थान को देखते हुए हमें अलीलकुण्ड जाना था। अलील का शाब्दिक मतलब होता है पवित्रए यह मुझे तब बताया गया था। पवित्र कुण्ड को पवित्र नहीं कहकर अलील कहा जाता थाए इसका मतलब मुझे ऐसा समझ पड़ा कि हो न हो यह उधर की भाषा का प्रभाव है। इस अलीलकुण्ड में से ही वह नाला निकलता है जिसके किनारे हिंगलाज माता और काली मैया का स्थान है।

यह नाला आगे जाकर पहाड़ों में न जाने कहाँ खो जाता है। इस अलीलकुण्ड में अगुआ छड़ी को स्नान कराता है। छड़ी.स्नान का समारोह भी पूर्णरूपेण धामिक होता है। अगुआ के मन्त्र और यात्रियों के समवेत धार्मिक गीतए पंथ के महापुरुषों के जयकारे और हिंगलाज माता के जयनाद के बीच यह रस्म धूम-धाम से सम्पन्न होती है।

'अलीलकुण्ड का निर्माण प्रकृति ने कुशल कारीगर की तरह किया है। वास्तव में प्रकृति से अधिक कुशल न तो कोई कारीगर है न चितेरा। पठार की कड़ी और ठोस कड़ी चट्टान की छाती के बीचों.बीच एक गहराए चौकोर गड्ढा है। पानी से लबालब इस कुण्ड के बीचों.बीच एक चट्टानए पानी में जमीन की सतह पर दिखाई पड़ती है। पानी कंचन की तरह साफ और चमकीला है। धरातल का कण.कण दिखाई पड़ता है। पानी बहुत मीठा और शीतल है पर हिंगोल नदी के पानी जैसा नहीं है। यात्री इस चट्टान के भी दर्शन करते हैं। ऐसा कहा जाता है कि यह विशाल शिवलिंग है जो कि जल समाधि लिए हुए है।

'अलीलकुण्ड वाले इस 'टेबल लेण्ड' पर घूमकर यात्री वापस हिंगोल के किनारे उसी पड़ाव पर आ जाते हैं। यहाँ ऊँटों का काफिला यात्रियों की पहले ही प्रतीक्षा करता मिलता है। यहाँ से रवाना होकर यात्रीदल गेंडा बाबा और कपिल मुनी के आश्रम पर होकर कराची के लिए चल पड़ता है। हमने भी यही किया। सब यात्रियों को अपने.अपने निवास स्थानों पर पहुँचने की जल्दी होती है। पर मैं चाहता था कि यह यात्रा अधिकाधिक लम्बी हो। लेकिन कितना भी चाहोए चाहने से क्या होता है! इस सारी यात्रा का अपना एक विधान है और हिंगलाज माता से वापस कराची जाने तक 16 दिन में यात्रा पूरी होनी चाहिएए नहीं तो अगुआई और यात्रियों की अध्यात्मिक उपलब्धि समाप्त मानी जाती है। हमारा दल भी ठीक 16 दिनों में वापस कराची आ गया। सभी सानन्द और सकुशल लौटे। न कोई बीमार पड़ा न थका। सब के सब ताजा और तन्दुरुस्त।

'कराची आकर अखाड़े में हाजरी देनी होती है। अगुआ ने हम सबकी हाजरी दी। अब यात्री वापस अपने घरों को जाने के लिए स्वतन्त्र हो जाते हैं। महन्त की एक चिट्ठी उनको रखनी जरूरी होती है। इस चिट्ठी पर महन्त के हस्ताक्षर और अखाड़े की सील.मुहर लगी होती है। यह चिट्ठी रास्ते में पासपोर्ट का काम देती है। जहाँ यात्री को कोई रुकावट आती हैए यह चिट्ठी शाही फरमान की तरह उसका रास्ता सुगम बना देती है। 

'नियमानुसार मुझे भी अगुआ की सिफारिश पर रामगिरिजी ने एक चिट्ठी दे दी। चिट्ठी मिलते ही यात्री मानसिक रूप से घर लौटने को तैयार और तत्पर हो जाता है। पर मेरा तो मामला ही दूसरा था। मैं तो घर जाना ही नहीं चाहता था। घर की यातनाओं से तो मैं चला था! अब मेरे मानस में मन्थन उठा . ष्मुझे कहाँ जाना चाहिएघ् मैं घर क्यों जाऊँघ्ष् अनेकानेक सवाल मेरे दिमाग में बगूले की तरह उठते थे और धूसरित होते थे। बहरहालए अखाड़े के नियमानुसार मुझे अखाड़ा छोड़ना था। मैंने रामगिरि स्वामी तथा बालभारती के पाँव छूकर कल्याण आशीष ली और अपनी झोली.झण्डा वहाँ से उठा लिया। 
   
'पैसा मेरे पास एक भी नहीं था। कराची से बिना टिकिट ही मैं रेल में सवार हुआ और जुंगशाही नामक स्टेशन पर आया। यहाँ रेल की लाइन पूरब.पश्चिम है। मुझे दक्षिण में आना आना था। सो मैंने रेल.यात्रा छोड़ी और वापस पैदल ही चला। कराँची में मैं रामगिरि के अखाड़े में कम से कम दो.ढाई माहए और रुक चुका था । मन मेरा घर आने का था नहीं और रामगिरिजी का मुझ पर अपार स्नेह थाए सो कई लोगों की ईर्ष्या मोल लेकर भी मैं वहाँ मुकाम करने में सफल हो ही गया था। फिर भी अखाड़ा छोड़कर निकलना तो पड़ा ही और इस विछोह का असर मेरे मन पर अधिकाधिक पड़ा। मन बार.बार कराची की ओर उड़ता था पर गुरु आज्ञा के कारण टूटे मन से मैंने पैदल ही दक्षिण दिशा का छोर पकड़ा। 

'चलते-चलते मैं सिन्ध नदी के किनारे आ गया। मुझे याद है, सुजावल नाम का कस्बा रास्ते में आता था। सुजावल से यात्रियों को नावें और बोटें सुलभ थीं। ये नावें और बोटें धर्मादे की भी चलती थीं और किराया देने वालों को पैसे से भी उपलब्ध थीं। मैं साधुवेश में ही था और भीख माँग.माँगकर ही अपना काम चला रहा था। सो मैंने धरम नाव में आसन जमाया और नदी पार करके मैं आशापुरी आ गया। आशापुरी में स्नान के लिए कुण्ड और विश्राम के लिए मठ की व्यवस्था थी। मठ में जाकर वहाँ के महन्त को कराँची की चिट्ठी बतानी होती है। महन्त उस चिट्ठी को देखकर उस पर परवाने के लिए अपने दस्तखत करता था। यदि ये दस्तखत नहीं किए जाते थे तो आगे की यात्रा सुविधाओं के लिहाज से दूभर हो जाती है। मैंने ये दस्तखत प्राप्त किये और आगे चला। मैं अकेला था और मैं हर सम्भव यत्न कर रहा था कि मेरी यात्रा अधिकाधिक लम्बी हो। इसी भावना ने मुझसे कच्छ का रन पैदल पार करवा दिया।'


 




किताब के ब्यौरे .
कच्छ का पदयात्री- यात्रा विवरण
बालकवि बैरागी
प्रथम संस्करण 1980
मूल्य . 10/- रुपये
प्रकाशक . अंकुर प्रकाशन, 1/3017 रामनगर,
मंडोली रोड, शाहदरा, दिल्ली-110032
मुद्रक . सीमा प्रिंटिंग प्रेस, शाहदरा, दिल्ली-32
कॉपीराइट . बालकवि बैरागी



यह किताब, दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती रौनक बैरागी याने हम सबकी रूना ने उपलब्ध कराई है। रूना, राजस्थान प्रशासकीय सेवा की सदस्य है और इस किताब के यहाँ प्रकाशित होने की तारीख को, उदयपुर में, सहायक आबकारी आयुक्त के पद पर कार्यरत है।

No comments:

Post a Comment

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.