गोरा बादल

श्री बालकवि बैरागी के दूसरे काव्य संग्रह
‘जूझ रहा है हिन्दुस्तान’ की तैंतीसवीं कविता

यह संग्रह पिता श्री द्वारकादासजी बैरागी को समर्पित किया गया है।




गोरा बादल

गोरा रे...
बादल रे...
आह्ला रे...
ऊदल रे...
गोरा रे भाई बादल रे
आह्ला रे भाई ऊदल रे
मारू बाजे बजे देश में, रण भेरी का शोर रे
गरजो रे गरजो गोरा बादल, बरस पड़ो घनघोर रे
गोरा रे...बादल रे...

जिसको मुँह का कौर खिलाया, वो करता है बेईमानी
शीश सिरहाने रखा जिसके, उसको सूझी शैतानी
सरहद से ललकार रहा है, देखो बौना अभिमानी
चला परखने बुजदिल देखो, भारत वालों का पानी
(तो) मूँछ मरोड़ो, आगे आओ, आया अपना दौर रे
गरजो रे गरजो गोरा बादल, बरस पड़ो घनघर रे
गोरा रे...बादल रे...

अय्यूबी सौदे दुश्मन से, होते हैं तो होने दो
लाल जहर से कोई चेहरे, धोते हैं तो धोने दो
ना करते भी आक-धतूरे, बोते हैं तो बोने दो
रावलपिण्डी में कुछ गीदड़, रोते हैं तो रोने दो
आखिर साथ हमारा देंगे, ढाका और लाहौर रे
गरजो रे गरजो गोरा बादल, बरस पड़ो घनघोर रे
गोरा रे...बादल रे...

जिसने हम पर पतझर डाला, उसके चमन उजाड़ दो
हाथ उठा है जो जननी पर, जड़ से उसे उखाड़ दो
हर चीनी की छाती पर तुम, अमर तिरंगा गाड़ दो
पेकिंग को नाखून गड़ा कर, कागज जैसा फाड़ दो
और निचोड़ो ऐसा जैसे, नींबू दिया निचोड़ रे
गरजो रे गरजो गोरा बादल, बरस पड़ो घनघोर रे
गोरा रे...बादल रे

मरघट के सोये भूतों को, दो आवाज़ जगाओ रे
डाकनियों और शंखनियों को, ताज़ा खून पिलाओ रे
चीनी आँतों की माला से, भैरव-कण्ठ सजाओ रे
सत्तर कोटि कलेजे काटो, भूखा रुद्र जिमाओ रे
करो खून में ग़ारत ऐसा, ओर मिले ना छोर रे
गरजो रे गरजो गोरा बादल, बरस पड़ो घनघोर रे
गोरा रे...बादल रे...

होशियार सिंह बाँह पसारे, लो आवाज़ लगाता है
उसका बदला कौन सूरमा, देखें आज चुकाता है?
बीड़ा फिरता है मतवालों, हँस कर कौन उठाता है?
किसका कन्धा, किसका कुन्दा, माँ का घाव पुराता है?
कौन बाँधता अपने सिर पर, रण दुल्हे का मौर रे
गरजो रे गरजो गोरा बदल, बरस पड़ो घनघोर रे
गोरा रे...बादल रे... 

कसम तुम्हें है काश्मीर के, जलते हुए चिनारों की
कसम तुम्हें है ब्रह्मपुत्र की, अध-घायल हुँकारों की
क़सम तुम्हें है धनसिंह जैसे, बिना बुझे अंगारों की
दाँत भींच कर आँत खींच लो, नरपत के हत्यारों की
लानत है, दुश्मन को अब तक, मिली हुई है ठौर रे
गरजो रे गरजो गोरा बादल, बरस पड़ो घनघोर रेे
गोरा रे....बादल रे...
 
नेफा से पेकिंग तक धरती, अरि मुण्डों से पाट दो
खड़ा चीर दो खीरे जैसा, गाजर जैसा काट दो
जोड़-जोड़ को, तोड़-तोड़ कर, बोटी-बोटी छाँट दो
अनशन तुड़वा दो चीलों का, यूँ उछाल कर बाँट दो
दावत दो कुत्तों-कौओं को, जशन मने हर ओर रे
गरजो रे गरजो गोरा बादल, बरस पड़ो घनघोर रे
गोरा रे...बादल रे...

इतिहासों से हमलावर ने, ना पूछा, ना ताछा है
किसी नशे में या पीनक में, नंगा होकर नाचा है
समझ रहा है नेहरू चाचा, सीधा-साधा चाचा है
लेकिन चाचा नहीं दोस्त अब, नेहरू एक तमाचा है
लाख जनम तक याद रहेगा, यह चाँटा पुरजोर रे
गरजो रे गरजो गोरा बादल, बरस पड़ो घनघोर रे
गोरा रे...बादल रे...

शीश चढ़ाने की बेला है, बढ़ो तान कर सीना रे
आन, मान या शान गँवा कर, जीना कैसा जीना रे 
या तो बहता रहे खून या, बहता रहे पसीना रे
जब तक दुश्मन जिन्दा तब तक, कैसा खाना-पीना रे
किसके लिये उगे हैं माथे, पैंतालीस करोड़ रे
गरजो रे गरजो गोरा बादल, बरस पड़ो घनघोर रे
गोरा रे...बादल रे...
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जूझ रहा है हिन्दुस्तान
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मालव लोक साहित्य परिषद्, उज्जैन (म. प्र.)
प्रथम संस्करण 1963.  2100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण - मोहन झाला, उज्जैन (म. प्र.)









यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। 
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। 
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।




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