चाल दाँतरा

 

श्री बालकवि बैरागी के मालवी श्रम-गीत संग्रह
‘अई जावो मैदान में’ की चौथी कविता


यह संग्रह डॉ. श्री चिन्तामणिजी उपाध्याय को समर्पित किया गया है।




चाल दाँतरा

चाल दाँतरा खेते चालाँ, खेत पकीग्यो धान को
देख दिवारो निकरीग्यो है पतझर की दुकान को
चाल दाँतरा खेते चालाँ

चतर चौमासा की सब पूँजी, गया दनाँ में खूटीगी
रतन हियारो रोतो रेईग्यो, नवी कूपराँ फूटी गी
तीर तोड़वा वारी नद्याँ, पाछी दुबरी वेईगी रे भई
पौष माघ का मन की खुन्नस, मन की मन में रेईगी रे भई
पाछो जोग जमीग्यो पट्ठे, कोयल और करसाण को
चाल दाँतरा खेते चालाँ, खेत पकीग्यो धान को
चाल दाँतरा चाल रे

सीस अमाणो धान खेत में, आज हलईर्यो हाथ रे
शायद ऊ केणो चावे है, अपणा मन की बात रे
ऊबो-ऊबो थाकीग्यो ऊ, अणाँ निठारी राताँ में
वणे लगई लाँ चाल कारजे, भरी-भरी ने बाथां में
अपणे सिवा वता कूण दूजो, है वणकी पेचाण को
चाल दाँतरा खेते चालाँ खेत पकीग्यो धान को
चाल दाँतरा चाल रे

थारी मूठ म्हने पकड़ी है, लाज राखजे तू म्हारी
थारे भरोसे छोड़ीर्यो म्हूँ, या केसर की क्यारी
घाव न्ही लागी जावे कोई, नवा अन्न का दाणा के
लाल तिलक मत कर दीजे तू, कोई राणा-महाराणा के
सत अईग्यो है आज थार में, राम और रहमान को
चाल दाँतरा खेते चालाँ खेत पकीग्यो धान को
चाल दाँतरा चाल रे

आड़ो, अवरो जूँ भी आवे, पाको-पाको काटजे
इतरावे पोमावे वणने, सबती पेलाँ छाँटजे
काट-कूट ने मती बिसरजे, तू थारा ईमान ने
काचो मती काटजे वाला, खच-खच की तुकतान में
कटवा वारो भी है भूखो, मान और सम्मान को
चाल दाँतरा खेते चालाँ, खेत पकीग्यां धान को
चाल दाँतरा चाल रे

भले हाथ में अईजा कोई भी, निर्धन या उमराव के
पाँता लाजे पूरी-पूरी, वगर भेद और भाव के
मूँ तो गीत हुणायाँ जऊँगा, थारे पाछे प्यार का
खेत-खरा में, गाम-परा में, मेहनत का मनुहार का
तू भी पल्लो मती छोड़जे, म्हारे जसा जवान को
चाल दाँतरा खेते चालाँ, खेत पकीग्यो धान को
चाल दाँंतरा चाल रे


आँपी जोड़ीदार जनम का, अपणों भी कई जोड़ो है
जो भी अपणों जस गावे ऊ, जतरो गावे थोड़ो है
तू अण चेतन, म्हूँ चेतन पर, जनम-जनम का संगाती
बेकारी भूखमरी गरीबी, कंगाली का बैराती
यो जोड़ो नक्की बदलेगा नक्शो हिन्दुस्तान को
चाल दाँतरा खेते चालाँ, खेत पकीग्यो धान को
चाल दाँतरा चाल रे
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संग्रह के ब्यौरे
अई जावो मैदान में (मालवी कविता संग्रह) 
कवि - बालकवि बेरागी
प्रकाशक - कालिदास निगम, कालिदास प्रकाशन, 
निगम-निकुंज, 38/1, यन्त्र महल मार्ग, उज्जन (म. प्र.) 45600
प्रथम संस्करण - पूर्णिमा, 986
मूल्य रू 15/- ( पन्द्रह रुपया)
आवरण - डॉ. विष्णु भटनागर
सर्वाधिकार - बालकवि बैरागी
मुद्रक - राजेश प्रिन्टर्स, 4, हाउसिंग शॉप, शास्त्री नगर, उज्जैन




यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है।  ‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती।  रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।











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