हाय रे!

श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘मन ही मन’ की सोलहवीं कविता

यह संग्रह नवगीत के पाणिनी श्री वीरेन्द्र मिश्र को समर्पित किया गया है।




हाय रे!

वे कहें कविता को कविता
तब तो वह कविता
वर्ना ऊँ ऽ ऽ ऽ ह्
वे कहें कोयल का कोयल तब
तो वह कोयल
वर्ना यूँ ऽ ऽ ऽ ह्।
याने कि
सर्जना और सूर्याेदय तक की
कसौटी
वे....वे.... और बस... वे।
और आप?
आप बस निरे पाठक
निकम्मे श्रोता
निरर्थक मनुष्य
याने कि कुछ भी नहीं।
अगर उनका बस चलता
तो वे बारूद को बर्फ
घरती को बाँझ
आकाश को अन्धा
पहाड़ को पुड़िया
सागर को पोखर
प्रकृति को पागल
और सत्य को गत्य
साबित कर देते।
रूमाल की तरह
तह कर लेते
दसों दिशाओं की
और कीर्ति कुमारी के
अन्तःपुर को
अपना चरागाह मानकर
तिनका-तिनका चर लेते।
पर हाय रे!
ऐसा हो नहीं पा रहा है
वे तत्पर खड़े हैं
बाँटने को प्रमाण पत्र
पर कोई लेने
नहीं आ रहा है।
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संग्रह के ब्यौरे
मन ही मन (कविता संग्रह)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - पड़ाव प्रकाशन 
46-एल.आय.जी. नेहरू नगर, भोपाल-462003
संस्करण - नवम्बर 1997
मूल्य - 40 रुपये
आवरण - कमरूद्दीन बरतर
अक्षर रचना - लखनसिंह, भोपाल
मुद्रक - मल्टी ग्राफिक्स, भोपाल










यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। 
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। 
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।









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