बरगद के आँगन में

श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘मन ही मन’ की तेरहवीं कविता

यह संग्रह नवगीत के पाणिनी श्री वीरेन्द्र मिश्र को समर्पित किया गया है।




बरगद के आँगन में

भादौं से उग आया
भिण्डी का पौधा
एक बरगद के नीचे
बरगद समाधि में
लीन था चुपचाप
आँखे मींचे।
पर ज्यों ही आये
उस भिण्डी के पौधे पर
पीले सुनहरे फूल
फलने लगी कोमल,
कमनीय भिण्डियाँ
भिण्डी के पौधे ने
अपने जबड़े भींचे
और ललकारता हुआ
बोला -
‘ऐ! बूढ़े बरगद!
हटजा मेरे रास्ते से
परे कर अपना जटाजूट
मत पड़ मेरे मार्ग में।
मुझ पर आ गये फूल-फल
तू आज तक न फूला न फला
और आँखें मूँदे कर रहा है
न जाने कौन-सा घपला।
मुझे छूना है आसमान,
करनी है आकाशी यात्रा
हटाले अपने पत्तों को
अपनी डालियों के कपड़ों लत्तों को
वर्ना मेरी ये पैनी नुकीली भिण्डियाँ
चीर देंगी तेरी छाती को
छेद देंगी तेरे अनगढ़ पत्तों को।
छिद जायेंगी तेरी हड्डियाँ
छोड़ मेरा रास्ता
खोल अपनी आँखे
वर्ना आर-पार हो जायेगी
मेरी ये धारदार सलाखें।
फिर मत कहना कि
मैंने चेताया नहीं था
या कि किसी से
कहलवाया नहीं था।’
अपनी समाधि में लीन
उस तपस्वी बरगद ने
भिण्डी का यह भोंडा
बयान सुना ही नहीं।
पर उस पर बैठा
एक पंछी चहचहाया
ठेठ ऊपरी झमकारी से
अपने लहरदार सुर में
उसने भिण्डी को समझाया -
‘बड़ी दीदी!
मेरे अपच के कारण
पड़ गया था तेरा बीज
धरती पर
इस बरगद बापू की छाया में
यूँ भादौं में उग आते हैं
तरह-तरह के बीज
पर तू जरा ज्यादा ही
कसमसा रही है
अपनी काया में।
बड़े मजे से कर अपनी
आकाशी यात्रा
तबीयत से छू आसमान को
यह बरगद बाबा कुछ नहीं
कहेगा, अपने आँगन में
आये मेहमान को।
मत ललकार इसे
नहीं होगी इसकी
समाधि भंग
चीख चिल्लाकर
नाहक मत कर खुद को तंग।
सदियों से बैठा है यह
यहाँ का यहाँ
ये भला क्यों आयेगा
तेरे रास्ते में
दम ले, जरा आराम से बैठ
बोल! क्या खायेगी नाश्ते में।’
भनभना उठी भिण्डी
भड़क कर भभक गई
‘जा! जा! अपना काम कर
बचा अपने पंखों को
खूब जानती हूँ मैं
मुफ्त के वकील
तुझ जैसे ढपोल शंखों को।
माथे पर बैठा रखा है न बाप ने
इसलिये कर रहा है चपर-चपर
छिदेगा न जब इन बर्छियों से
तब पड़ेगी तुझे
इस लफ्फाजी की खबर।’
पंछी न चीखा, न चिल्लाया
न गर्माया न गुर्राया
उसने बड़े प्रेम से
बड़ी दीदी उस भिण्डी को
समझाया-
‘बुरा मत मान मेरी अम्माँ!
शौक से जारी रख अपना सफर
लेकिन आकाश की ऊँचाइयों पर
डाल भी ले एक भरपूर नजर।
अभी भादौं है
तेरा जन्म-मास है
अपनी हथेलियों पर खिंची
आयु रेखा को जाँच ले, जँंचवा ले
अपनी भिण्डियों से
यह चीर-फाड़ का नाच और
नचवा ले।
आसोज, क्वाँर और जी ले
कार्तिक के पहले पखवारे तक
जीवन का रस और पी ले।
दीवाली पर खोलेगा
यह तपस्वी अपनी आँखें
तब तक और माँज ले, भाँज ले
अपनी किरचें, बर्छियाँ
और सलाखें।
जब घर-घर जले दीप
जगरमगर मने दीवाली
आँगन-आँगन हो
गोबर-धन की पूजा
और रंगत बदले
धरती की हरीतिमा-हरियाली
तब तू भी
दीवाली मनाने आना
और बरगद बापू के आँगन में
अपनी आकाशी यात्रा
का गीत गाना।
जा, अभी जा,
या फिर चुप हो जा।’
और सैकड़ों दीवालियों से
इन्तजार कर रहा है
यह बूढ़ा बरगद
कि भिण्डी अब आये
अब आये
अपना संकल्प दोहरा कर
उसे रास्ते से हटाये।
पर भादौं के भभूकेदार
भिण्डी के उस हीन महत्वाकांक्षी
पौधे का दीवाली पर
न कोई अता मिलता है
न पता मिलता है
न उसका कोई अंकुर उठता है
न कोई फूल खिलता है।
और वह बूढ़ा शतायु वयोवृद्ध
आशीर्वाददाता बरगद
फिर-फिर समाधि में लीन
हो जाता है
या यूँ कहो कि,
अबोई, अवांछित, अल्पायु
हीन महत्वाकांक्षी भिण्डियों तक की
कल्याण-कामना में
चुपचाप तल्लीन हो जाता है।
सार तत्व की बात
बस इतनी सी है कि
किसी की आकाशी ऊँचाईयों
के बारे में उलजलूल मत बोलो
हो सके तो संस्कारशील बनकर
अपनी अपनी प्राणशक्ति को
ईमानदारी से टटोलो
और अपनी भिण्डियों को
किसी बरगद के
आँगन में मत तोलो।
इच्छा, आकांक्षा, महत्वाकांक्षा
और हीन महत्वाकांक्षा
के बीच विभाजन रेखाएँ
खुद खींच लो
पेड़ और पौधे में बहुत फर्क
होता है
अपने-अपने पेड़-पौधों को
तबीयत से सींच लो।
अपने-अपने कद से
मन ही मन
सब अवगत हैं
पर बरगद पर
बौखलाने की
हर भिण्डी में लत है।
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संग्रह के ब्यौरे
मन ही मन (कविता संग्रह)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - पड़ाव प्रकाशन 
46-एल.आय.जी. नेहरू नगर, भोपाल-462003
संस्करण - नवम्बर 1997
मूल्य - 40 रुपये
आवरण - कमरूद्दीन बरतर
अक्षर रचना - लखनसिंह, भोपाल
मुद्रक - मल्टी ग्राफिक्स, भोपाल









यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। 
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। 
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।









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