निरर्थक विकल्प

 
श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्र्रह
‘मन ही मन’ की चौथी कविता

यह संग्रह नवगीत के पाणिनी श्री वीरेन्द्र मिश्र को समर्पित किया गया है।





निरर्थक विकल्प

यूँ तो चल जाता है तामझाम
अल्प ही नहीं अल्यल्प से भी
पर श्रेष्ठ होना चाहिए विकल्प को
कल्प से भी
वर्ना निरर्थक है सारी व्यवस्था
सारा तन्त्र
अनाड़ी नहीं थे हमारे पुरखे,
हमारे शब्दशास्त्री
जो ‘वि’ लगाकर बना दिया
‘विकल्प’ को एक सिद्ध मन्त्र
कल्प के साथ-साथ किया
प्रावधान श्रेष्ठ से उत्तम का
यानी कि चौदहवीं से पूनम का।
वो जो था न एक राजा?
जिसने अपने अस्तबल के
विद्युतवेगी, अपलक, चपल,
हिनहिनाते
बेजोड़ घोड़ों को
दिलवा कर देश निकाला
हर खूँटे से बँधवा लिये थे
एक से एक आला गधे
और खच्चर
और फिर इतराता भी
रहा अपने आलीशान तन्त्र पर
कि जानवर की जगह जानवर
टाँग की जगह टाँग, पीठ की जगह पीठ
और कान की जगह कान
पशुधन की जगह पशुधन महान
चौपाये की जगह चौपाये
घोड़े का विकल्प गधा क्यों नहीं हो पाये?
पर क्या हुआ उसका हश्र?
सुना नहीं आपने?
आखिर क्यों नहीं किया था ऐसा
उसके प्रतापी बाप ने?
चूँकि वे घोड़े, वे तुरंग
मरते, मर जाते पर
गधों और खच्चरों की तरह
लोटते नहीं थे राजा के चरणों में
जान पर खेल जाते, पर
बैठते नहीं थे पल भर को भी।
मजाल, कि लचक जाये तिल भर
भी कनौती
सोते नहीं थे क्षण भर।
खड़े रहते जीन, काठी, लगाम, पाँवड़ों
और सवार के इन्तजार में।
आजीवन काम आते
सुख-दुख, तीज-त्यौहार में।
हिनहिना पड़ते कोसों दूर की
रणगन्ध से
समर-क्षेत्र में रौंद कर रख देते थे
दुश्मनों और राजद्रोहियों को
जहाँ-जहाँ पड़ती थी उनकी टाप
धरती हीरे उगल देती थी अपने आप
जी हाँ बिल्कुल चुपचाप
चारण, भाट राजा से ज्यादा
विरद बखानते थे उन तुरंगों का
सरहदों तक दबदबा था
उनके समरजयी अचम्भों का।
पर जब से हुए वे रुखसत
मिला उन्हें देशनिकाला
तब से निवाला दर निवाला
क्या हुआ हाल उस राजा का?
अब, जब-जब बजती है रणभेरी
सजती है चतुरंग-चौसर
तब-तब राजा देता है हुक्म कि
रथ तैयार करो
सजाओ सेना
बैरी पर प्रहार करो।
पर सारथी रथ में जोते किसे?
पीठ के बल राजा के चरणों में
लौटने वाले उन गधों को?
खच्चरों को?
चापलूसी का वृन्दगान गा-गाकर
राजा के कानों में कोलाहल घोलते
उन रक््तपिपासु खरों-मच्छरों को?
सारथी रथ जोत भी दे
तो राजा रथ में बैठे कैसे?
बैठ भी जाये तो अपनी शोभा पर
ऐंठे कैसे?
आदत नहीं है गधों को
रणभेरियों, नरसिंघों और आकाशी
नक्कारों की
वे क्या जानंे खटाखट कैसी होती है
रणांगण में ढालों की, तलवारों की।
तब पीठ के बल लोट लगाने के आदी
वे गधे भागते हैं बदहवास
कैसा रथ? कैसा रथी? कैसा
सारथी? कैसा रण?
और कैसा रणोल्लास?
तब फिर राजा का भविष्य
और रण का परिणाम
घोषित ही नहीं, पूर्व घोषित है
चूँकि यह सब उस व्यवस्था और तन्त्र द्वारा
पुष्ट पोषित है
इसीलिए मेरी मान लो बन्धु!
समझाओ अपने-अपने राजाओं को कि
चलने को तो चल जाता है
तामझाम
अल्प ही नहीं अत्यल्प से भी
पर श्रेष्ठ ही नहीं उत्तम तक होना चाहिए
विकल्प को कल्प से भी।
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संग्रह के ब्यौरे
मन ही मन (कविता संग्रह)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - पड़ाव प्रकाशन 
46-एल.आय.जी. नेहरू नगर, भोपाल-462003
संस्करण - नवम्बर 1997
मूल्य - 40 रुपये
आवरण - कमरूद्दीन बरतर
अक्षर रचना - लखनसिंह, भोपाल
मुद्रक - मल्टी ग्राफिक्स, भोपाल



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यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। 
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। 
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।







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