आप जैसे ही


श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘मन ही मन’ की दसवीं कविता

यह संग्रह नवगीत के पाणिनी श्री वीरेन्द्र मिश्र को समर्पित किया गया है।




आप जैसे ही
 

नहीं होता कोई नक्षत्र
आभा के बिना
सूर्य से लेकर अलख, तारे तलक
दीप्ति है हर एक की
अपनी अलग
हर एक की अपनी छटा है,
आपका आकाश यह
सारा समूचा
इस तरह के दीप्त, उजले
स्वर्ण-मुख, रूपा-नहाए
ज्योति के जाज्ज्वल्य पुत्रों से पटा है।
शर्त है केवल
निरन्तर रात-दिन आठों पहर
वे सतत् जलते हैं
और अपना मुँह
अमल उजला रखे।
यह नहीं है शर्त
किसकी रोशनी
कितनी धनी है,
या कि किसकी ज्योति
किसकी कोख ने
कैसी जनी है।
बात केवल यह
स्वयं से पूछकर निर्णय करें
कि आप अपने ज्योति व्रत का
और उसके शील का निर्वाह
कितनी आस्था के साथ करते हैं।
मात्र ध्रुव या सूर्य ही हैं
अडिग, अविचल या अटल,
और तो नक्षत्र सारे
आप जैसे ही निरन्तर
कक्ष-कक्षा में सनातन
एक अनुशासित विचरणा-पंथ पर
दीप्त रहकर ही
विचरते हैं।
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संग्रह के ब्यौरे
मन ही मन (कविता संग्रह)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - पड़ाव प्रकाशन 
46-एल.आय.जी. नेहरू नगर, भोपाल-462003
संस्करण - नवम्बर 1997
मूल्य - 40 रुपये
आवरण - कमरूद्दीन बरतर
अक्षर रचना - लखनसिंह, भोपाल
मुद्रक - मल्टी ग्राफिक्स, भोपाल










यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। 
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। 
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।









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