नदी का घर दहाना, नहीं मुहाना है

श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्र्रह
‘मन ही मन’ की पाँचवीं कविता

यह संग्रह नवगीत के पाणिनी श्री वीरेन्द्र मिश्र को समर्पित किया गया है।





नदी का घर दहाना, नहीं मुहाना है

बहकावे में आकर
नदी ने मान ली उनकी बात
और उलटी बहने लगी रातों-रात
तो वे इतरा उठे
और अपनी जीत के गीत गा उठे।
खड़े हो गए किनारों पर,
ऐसे कि जैसे
सब कुछ हो रहा है
उनके इशारों पर।
पर उलटी बहने में
नदी की गति हो गई मन्द,
टूट गया उसका
सागर में समा जाने की
ललक वाला छन्द।
हैरान, परेशान देखते रहे लोग
हाय राम,
इस नदी को
कहाँ से लग गया उलटे बहने का
यह राजरोग?
लहरों का लहराना
मछलियों का गुनगुनाना
कूलों, कछारों का लिपट-लिपट जाना
सब कुछ हो गया असहज।
और जब
वापस पहुँची वह दहाने पर
तो अवाक् रह गए पर्वत-पिता
उसके वापस लौट आने पर।
नदी खुद भी कुछ अचकचाई
ठेठ बाप के आँगन में जाकर
इतना भटकाव खाकर समझ पाई
कि मनचलों ने उसे
कहीं का नहीं छोड़ा है,
उफ्,
किन अधर्मियों के चक्कर में
उसने अपना सनातन ‘व्रत’ तोड़ा है?
और...और...और...
लौट चली वापस
उल्टे मुँह, सीधी तरफ।
नदी का घर
दहाना नहीं, मुहाना है
सागर में समाने से पहले
खुद तीर्थ बनकर
पग-पग पर तीरथ बनाना है।
कुछ का धर्म होता है
नदी को रोकना
तटों और तीर्थों की
पीठ में छुरा भोकना।
ये तो समझदार, सयानी है नदी
जो लौट पड़ी हैं वापस
मुहाने को,
बस तभी से वे धुरन्धर
कोस रहे है दहाने का।
कि, कैसा बाप है यह
जो अपनी बेटी तक को
रोक नहीं पा रहा है
न जाने कौन-कौन
इसमें निर्वसन नहा रहे हैं
और इसे मजा आ रहा है।
अब वे क्या जानें, कि
नदी क्या है?
दहाना क्या है?
मुहाना क्या है?
नदी के बहने का मतलब क्या है
तीरथ का अर्थ तब क्या था
और अब क्या है?
एक बड़ी नदी
अपने आप में निमन्त्रण है
छोटी नदियों को,
उमड़ते, उफनते नालों को,
कि, आओ मुझमें समा जाओ
मेरे साथ चलो
आराम से रहने दो
अपने सरवर, पोखर, तालों को।
छोटों को बड़प्पन देती है नदी
तीर्थ बनकर
मरुस्थल को महर्षि-मन देती है नदी।
बूँद लेती है
सागर देती है
पंछी को पेड़
घुमन्तू को घर देती है।
समन्दर बनती हुई नदी को
महज इसलिए मत भटकाओं
कि वह तुम्हारी है,
तुम अब भी अगर छीनते हो
इसका धरम
तो मान लो कि
तुम्हें कोई राजरोग है
कोई खास बीमारी है।
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संग्रह के ब्यौरे
मन ही मन (कविता संग्रह)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - पड़ाव प्रकाशन 
46-एल.आय.जी. नेहरू नगर, भोपाल-462003
संस्करण - नवम्बर 1997
मूल्य - 40 रुपये
आवरण - कमरूद्दीन बरतर
अक्षर रचना - लखनसिंह, भोपाल
मुद्रक - मल्टी ग्राफिक्स, भोपाल



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यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। 
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। 
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।







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