कहते हैं कुदरत पर काबू

श्री बालकवि बैरागी के दूसरे काव्य संग्रह
‘जूझ रहा है हिन्दुस्तान’ की तेईसवीं कविता

यह संग्रह पिता श्री द्वारकादासजी बैरागी को समर्पित किया गया है।




कहते हैं कुदरत पर काबू

हर मुश्किल आसान बना दी, दुनिया में विज्ञान ने
कहते हैं कुदरत पर काबू, कर डाला इन्सान ने

धरती सिकुड़ गई बेचारी, सागर लगता रीता है
सबसे ज्यादह आसमान का, होता रोज फजीता है
ऊब गया घरती से मानव, चन्दा पर ललचाया है
देख करिश्मे इस पुतले के, ब्रह्मा भी चकराया है
इसकी ज़िद पर हार मान ली, है शायद भगवान ने
कहते हैं कुदरत पर काबू, कर डाला इन्सान ने

ज्यों-ज्यों बढ़ती बुद्धि बावरी, ये पगलाता जाता है
दिन-दिन इसका माखन जैसा, मन पथराता जाता है
नहीं भरोसा खुद का इसको, डरता अपनी छाया से
ममता मर गई, दया बिसर गई, मोह लगा बस माया से
इधर अँगूठा दिखा दिया है, इसको मौत महान ने
कहते हैं कुदरत पर काबू, कर डाला इन्सान ने

आज ज़िन्दगी और मौत का, नाम है केवल मज़बूरी
फिर क्यों घटता भाईचारा, दिन-दिन बढ़ती क्यों दूरी
कहीं रंग बन जाता दूरी, कहीं लड़ाती है भाषा
हरफ-हरफ मिटती है हर दिन, मानवता की परिभाषा
अन्धा करके शायद ऊँगली, पकड़ी है शैतान ने
कहते हैं कुदरत पर काबू कर डाला इन्सान ने

पता-ठिकाना नहीं रहा है, कहीं प्यार के बोल का
चार लकीरें लड़वा दें तो, क्या मतलब भूगोल का
सबसे सुन्दर और सलौनी, मानव है कृति कुदरत की
इसीलिये इससे है आशा, उल्फत और मुहब्बत की
वर्ना किसको बख्शा अब तक, बोलो तो शमशान ने
कहते हैं कुदरत पर काबू कर डाला इन्सान ने

आज जगाओ सोई करूणा, सोया प्यार जगाओ रे
मीत बनो सबके दुख-सुख के, सबको मीत बनाओ रे
मन का माखन फिर से पिघले, ऐसी सुबह उगाना है
श्राप दिये ऐटम ने जितने, सब वरदान बनाना है
पूरी तरह नहीं मोड़ा है, मुँह अब भी ईमान ने
कहते हैं कुदरत पर काबू कर डाला इन्सान ने
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जूझ रहा है हिन्दुस्तान
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मालव लोक साहित्य परिषद्, उज्जैन (म. प्र.)
प्रथम संस्करण 1963.  2100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण - मोहन झाला, उज्जैन (म. प्र.)









यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। 
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। 
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।




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