अई जाओ मेदान में

श्री बालकवि बैरागी के मालवी श्रम-गीतों के संग्रह
‘अई जाओ मेदान में’ 
भूमिका, कवि का आत्म-कथ्य, समर्पण और संग्रह के ब्यौरे






समर्पण 
स्वर्गीय दादा श्री चिन्तामणिजी उपाध्याय की 
वात्सल्यपूर्ण लोक यात्रा को 
श्रद्धा सहित




नमस्कार

‘अई जाओ मेदान में’ मेरे मालवी श्रम गीतों का संग्रह है। जिस समय मैं मालवी परिवार में शामिल हुआ उस समय आजादी आ चुकी थी, देश का ध्वज और मिट्टी की धज, सब कुछ बदल गया था। 

मालवा की भौगोलिक विशेषता यह रही है कि वह भारत के हृदय स्थल का स्थान लिए हुए बैठा है, ठीक भारत के बीचों-बीच। यह स्थिति मालवा के लिए सुरक्षा की दृष्टि से बहुत ही अच्छी है पर इसका असर दूसरी तरफ बुरा पड़ा। हम मालवी लोग एक तरह से माँ के पेट में हैं। जो भी सुख-दुःख हो, माँ सहेगी। हम तो गर्भ की तरह सुरक्षित हैं। न हमें कोई यद्ध डरा सका, न हम किसी प्राकृतिक प्रकोप की परवाह कर सके। ‘पग-पग रोटी, डग-डग नीर’ वाले मालवा ने सबको पाला, किसी को मना नहीं किया।

पूरब से पश्चिम की तरफ युद्ध को जाने वाले सेनानी रहे हों या उत्तर से दक्षिण को जीतने वाले सूरमा रहे हों, मालवा ने सबको अपना अतिथि मान कर हर आते-जाते का सत्कार किया। कुदरत बीज फेंकने मात्र से देती रही। इस अतिथि सत्कार की संलग्नता और प्रकृति की उदारता ने मालवा को भरपूर परिश्रम से जरा सा तोड़ दिया। यही कारण है कि मालवी लोक गीतों में श्रम गीतों का बड़ा अभाव है। जीवन के समस्त सोलहों संस्कारों के गीत आपको मालवी में मिल जायेंगे पर फसल की कटाई, निदाई या श्रम की प्रेरणा के गीत नहीं के बराबर मिलेंगे। शायद हमारे लोक गायक या लोक कवि इस ओर समय नहीं जुटा पाये या दूसरे भी कुछ कारण हो सकते हैं।

कुँवर श्रीगिरिवरसिंह ‘भँवर’ और ‘भँवर’ के बाद वाली मालवी लिखने वाली पीढ़ी ने तब श्रम को अपना विषय बनाया। ‘भँवर’ से पहिले वाली पीढ़ी मालवी के इस अंग को छूने का यत्न भी नहीं कर पाई। उस पीढ़ी का संघर्ष - था आजादी लाना। इस पीढ़ी का संघर्ष हुआ - आजादी का विकास और नये भारत का निर्माण। इस दृष्टिकोण से विगत कुछ सालों में मालवी में पर्याप्त श्रम गीतों की सर्जना हुई। जब हम श्रम की बात कर ही रहे थे कि हम पर एक के बाद एक युद्ध आना शुरू हो गये। तब मालवी की सारी चेतना युद्ध पर केन्द्रित हो गई। वह युद्ध चाहे चीन से रहा हो या पाकिस्तान से, मालवी की कलम ने बराबर अपने रक्त से चैतन्य वार्ता की। युद्ध के समय लिखे गये मालवी गीतों को उस सन्दर्भ से आप किसी भी भारतीय भाषा के समकालीन साहित्य के समकक्ष रख सकते हैं, चाहे उसमें तत्कालिकता होे, उसमें शाश्वतता नहीं हो पर जिस कोटि का साहित्य उस समय सारे भारत में लिखा गया उस कोटि में मालवी के साधारण से साधारण कलम के कवि की कविता को रखा जा सकता हैं। जब युद्ध लौट जाता है तो फिर पसीने का काम शुरू हो जाता है, तब मालवी लेखन वापस  श्रम की ओर मुड़ा। यह लेखन मालवी में सतत् चल रहा है। मेरे इस संग्रह के गीत श्रम सूर्य को चढ़ाया हुआ एक विनम्र अर्ध्य मात्र हैं।

जैसा कि मेरे साथ मालवी में विशेष करके होता आया है, यहाँ भी लोक धुनों और लोक संस्कारों का ऋणी हूँ। एक बार फिर परम्परा और उसके माधुर्य से बँधा हुआ, यह बन्धन मुझे हमेशा अच्छा लगा है। मैंने कभी नहीं चाहा कि यह बन्धन मैं तोड़ दूँ। माँ के आँचल की पवित्रता और प्रेमिका के भुजपाश की मादकता मुझे इस बन्धन में लगती हैं। यह बन्धन आप सबको शुभ हो।

आभार को यदि आप परम्परा नहीं मानें तो मुझे सबसे पहले मेरी पत्नी सुशील ‘पिया’ का प्राभार मानना पड़ेगा। उसके सहेजे ही ये गीत इतने भी मिल पाये वर्ना अन्य गीतों की तरह ही ये भी गुम जाते। पाण्डुलिपि तैयार करते समय मुझे लगा कि मैंने इस दिशा में अपनी कलम को और अधिक चलने देना चाहिए। सृजन की भूख एक शाश्वत भूख है। वह रक्त और वक्त की भूख नहीं, मिट्टी और पीढ़ियों की भूख है। यह भूख जागृत रहे तो ही किसी देश की जाग्रति का परिचय मिलता रहता है। मैं प्रयत्न करूँगा।

मैं यह मानता हूँ कि आपने मेरा मालवी संग्रह ‘चटख म्हारा चम्पा’ पढ़ा होगा। मन्दसौरी मालवी के बारे में मैं उस संग्रह में अपनी ओर से कुछ स्पर्श कर सका हूँ।  दादा चिन्तामणिजी उपाध्याय ने उसमें और अधिक लिख दिया है, मेरे इन गीतों के साथ यहाँ भी वही बात है जो भाषा के मामले में उस संग्रह में रही है। 

आपका बहुत ऋणी हूँ कि आपने इस पुस्तक को किसी भी निमित्त पसन्द किया। अधिक प्रसन्नता तब होगी जब इसका एक-आध गीत, आपकी किसी भी पीढ़ी के काम आ सके, आपके श्रम को उत्तेजित कर सके।

‘कालिदास प्रकाशन’ का आभार मानना मेरा विनम्र कर्त्तव्य है। अग्रज श्री हरीश निगम को में अपना आत्मीय आदर अर्पित करता हूँ।

-बालकवि बैरागी
मनासा, मन्दसौर (म. प्र.)
23 मई 1986, बुद्ध पूर्णिमा 2043 वि.






अई जावो मेदान में (मालवी कविता संग्रह) 
कवि - बालकवि बेरागी
प्रकाशक - कालिदास निगम, कालिदास प्रकाशन, 
निगम-निकुंज, 38/1, यन्त्र महल मार्ग, उज्जन (म. प्र.) 45600
प्रथम संस्करण - पूर्णिमा, 986
मूल्य रू 15/- ( पन्द्रह रुपया)
आवरण - डॉ. विष्णु भटनागर
सर्वाधिकार - बालकवि बैरागी
मुद्रक - राजेश प्रिन्टर्स, 4, हाउसिंग शॉप, शास्त्री नगर, उज्जैन



अनुक्रमणिका

01 मेहनत को जुग आयो रे 
02 जामण हेला पाड़े रे 
03 वाजे रे ढोल
04 चाल दाँतरा 
05 मोड़ीराम 
06 घुड़ला पे आजो मती 
07 धान उग्यो 
08 फिकर करो 
09 चलो गऊ का जाया ओ 
10 म्हारा वीर 
11 पसीनो एक साथ चूवा दो 
12 धरती का जाया ओ 
13 पसीनो ललाट को 
14 धरती को गीत 
14 मौसम बदलीग्यो 
16 देस म्हारा बदल्यो 
17 धरती धूजेगा 
18 फागण अलबेलो 
19 चेत भवानी 
20 गंगा ती 
21 थोड़ो दीजो रे पसीनो 
22 हुणजे रे मोट्यार 
23 मेहनत करवा वारा मरदां 
24 जागो दादा 
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यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। ‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती।  रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।
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