श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘आलोक का अट्टहास’ की सत्ताईसवीं कविता
‘आलोक का अट्टहास’ की सत्ताईसवीं कविता
जन्मदिन पर-माँ की याद
आज आगर माँ होती
तो कुँवारी बछिया के गोबर से
लीपती आँगन
बिछाती उस पर हरी दूब
निछराती कुंकुम-अक्षत
पधराती मंगलदीप
पूरब को करती प्रणाम
और करके आचमन
लेकर अपने कुल देवता का नाम
सिर सहलाती मेरा
छाती से चिपटाती मुझे
अपना आँचल ओढ़ाती
ममता और वात्सल्य के
महँगे मोती लुटाती
बलैयाँ लेती
और मन-ही-मन मेरा
मंगल मनाती।
कहती,
‘खूब जियो मेरे लाल!
अपना दिल-दिमाग और दरवाजा
हमेशा रखना खुला और विशाल।’
और अपने हाथ से
खिलाती पुराने गुड़ की डली।
तब
इस उम्र में भी
ममता के उफान से
गीले हो जाते उसके आँचल
सूखी रेत पर
फूट पड़ती सहस्रधारा।
नए सिरे से
समझ में आता मुझे
गंगोत्री, गौमुख और
गंगा का मतलब
तब
मैं छूता माँ के पाँव
उठाता कलम
और लिखता एकाध शाश्वत पंक्ति।
लाड़ भरी झाड़ खाता उसकी,
‘कुछ काम भी करेगा
कि सारी उम्र बस
कागज ही काले करेगा?
राम जाने
इतना लिख-लिखकर
किसके सिरहाने धरेगा?’
और फिर
एक भरपूर नजर
मुझपर डालकर
डाँटती अपनी बहू को,
तो कुँवारी बछिया के गोबर से
लीपती आँगन
बिछाती उस पर हरी दूब
निछराती कुंकुम-अक्षत
पधराती मंगलदीप
पूरब को करती प्रणाम
और करके आचमन
लेकर अपने कुल देवता का नाम
सिर सहलाती मेरा
छाती से चिपटाती मुझे
अपना आँचल ओढ़ाती
ममता और वात्सल्य के
महँगे मोती लुटाती
बलैयाँ लेती
और मन-ही-मन मेरा
मंगल मनाती।
कहती,
‘खूब जियो मेरे लाल!
अपना दिल-दिमाग और दरवाजा
हमेशा रखना खुला और विशाल।’
और अपने हाथ से
खिलाती पुराने गुड़ की डली।
तब
इस उम्र में भी
ममता के उफान से
गीले हो जाते उसके आँचल
सूखी रेत पर
फूट पड़ती सहस्रधारा।
नए सिरे से
समझ में आता मुझे
गंगोत्री, गौमुख और
गंगा का मतलब
तब
मैं छूता माँ के पाँव
उठाता कलम
और लिखता एकाध शाश्वत पंक्ति।
लाड़ भरी झाड़ खाता उसकी,
‘कुछ काम भी करेगा
कि सारी उम्र बस
कागज ही काले करेगा?
राम जाने
इतना लिख-लिखकर
किसके सिरहाने धरेगा?’
और फिर
एक भरपूर नजर
मुझपर डालकर
डाँटती अपनी बहू को,
‘अच्छा-भला नारियल-सा
गोल-मटोल सौंपा था तुझे
बनाकर रख दिया है
साँतिये की लकीर-सा,
इसे कुछ खाने को दे
सुख-चैन से रख
रात-दिन करती रहती है
न जाने कहाँ की चख-चख।’
और उसे भी देती आशीष,
’सुख से रहें तेरे लाल
हीरे-मोती बरसते रहें
तेरे आँगन में
तेरे पड़ोसी की देहरी को भी
नहीं छुए दुःख की परछाई
जब से तू इस घर में आई
उजाला-ही-उजाला है
दिपदिपाती रहे तेरी बिन्दिया
लहकता रहे तेरा सिन्दूर।
कुछ खाया-पिया कर
अपने बच्चों की
रमत-गमत में
हँसती-गाती जिया कर।’
और फिर
जुड़ जाती अपने नाती पोतों से।
पर.....
आज नहीं है माँ
बरसों पहले
एक अनुभूत-अज्ञात-अलख ईश्वर ने
छीन लिया मुझसे
उसी का दिया हुआ
वो सशरीर ईश्वर,
जो सम्बोधन से होता था-‘माँ!’
और उपस्थिति से होता था
पालनहार परमात्मा-मेरा ईश्वर
उसके बिना
यह मन्दिर अब रह गया है
ईंट-पत्थर का मात्र एक मकान
या अधिक-से- अधिक
मेरा घर।
समझ नहीं पड़ता
आज के दिन मैं क्या करूँ?
ये एक कागज और
कर दिया काला
इसे अब
किसके सिरहाने धरूँ?
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संग्रह के ब्यौरे
आलोक का अट्टहास (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - सत्साहित्य प्रकाशन,
205-बी, चावड़ी बाजार,
दिल्ली-110006
सर्वाधिकार - सुरक्षित
संस्करण - प्रथम 2003
मूल्य - एक सौ पच्चीस रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली
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