गुप्त लिपि




श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘आलोक का अट्टहास’ की सोलहवीं कविता 




गुप्त लिपि

आपके गाल.
अगर नहीं हैं लाल
तो कोई नहीं है
पुरसाने हाल।
कुछ दस्तूर हैं दुनिया के
हाँ, अकसर देख लेते हैं
लोग, गालों की गोलाई
पर उन पर भी नहीं हो
चिकनाई और ललाई
तो कोई नहीं पूछता
कतरा जाते हैं लोग।
हजार बैठे रहो घर में
लेकर रंग भरी पिचकारी
पर कोई नहीं आता
खेलने होली
क्योंकि लाली जो नहीं है
तुम्हारे गालों पर।
बीत जाती हैं राखियाँ
सूनी रह जाती है कलाई
पक्के रिश्तोंवाले
कच्चे धागे
रोने लग जाते हैं अभागे।
जी हाँ,
बहिन तक देखती है
भाई के गालों की ललाई।
इसके बिना
किसका भाई? कैसा भाई?
वार-त्यौहार-नकद-उधार
हार-व्यवहार
और जी हाँ,
जो कहलाता है प्यार
वे सभी हैं इसी लाली के गुलाम।
गाल की सम्पदा गोश्त नहीं
लाली है
इसी दौलत के दरवाजे पर
आज ईद है
कल होली है
परसों दीवाली है।
अब अगर
लुट गई हो यह दौलत
चली गई हो यह लछमी
डूब गई हो यह पूँजी
तो कुछ करो यूँ जी
कि मार लो अपने ही हाथ से
तमाचा
जैसे कि जंगल में मोर नाचा,
और निकल पड़ो घर से
आते-जाते लोग
इधर से या उधर से
पूछेंगे,
क्या बात है भाई ?
आज चेहरे पर
नई रौनक है
नई रंगत है
आजकल किसका साथ है
किसकी संगत है?
कहाँ से आ गई यह दौलत?
और जमाना करने लग जाएगा
जय रामजी की।
महज इतना भर
पूछने के लिए कर रहा हूँ
यह कसरत
कि हज़रत!
दुनिया के इस दस्तूर से
पड़ा हो कभी साबका
जी हाँ, खुद आपका
तो क्या आपने
खुद को मारकर तमाचा
अपने गाल पर
अपने ही हाथों से लिखी
इस इबारत को
कभी शीशे में बाँचा ?
लोकाचार में लुप्त
इस गुप्त लिपि को
पढ़कर देखो
अपने अभिन्न मित्र
अभाव से,
कभी इस तरह लड़कर देखो।
हथेली से गाल तक
लाली का यह सफर
किसी कविता से कम नहीं है
धरे रह जाएँगे जमाने के
अस्तूर-दस्तूर
जिन्दगी के लिए मेरा आजमाया
मुफ्त यह नुस्खा
किसी धन्वन्तरि का
निरर्थक श्रम नहीं है।
----- 







संग्रह के ब्यौरे
आलोक का अट्टहास (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - सत्साहित्य प्रकाशन,
          205-बी, चावड़ी बाजार, 
          दिल्ली-110006
सर्वाधिकार - सुरक्षित
संस्करण - प्रथम 2003
मूल्य - एक सौ पच्चीस रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली



















No comments:

Post a Comment

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.