यह संग्रह दा’ साहब श्री माणक भाई अग्रवाल को समर्पित किया गया है।
आग का मौसम
आग! आग! आग!
आओ! कुछ दिन हम
आग खाएँ
आग ओढ़ें, आग बिछाएँ
आग उगलें, आग गाएँ।
जैसे सावन आता है, भादों आता है
या फागुन आता है
वैसे ही यह आग का मौसम है
बैठे-बिठाए बिना बुलाए
सारे घर आँगन पर छा गया है
हमें आए न आए
पर इसे मजा आ गया है
तो क्या हम डरें ?
हाय-हाय करें? विमूढ़ होकर मरें?
नहीं इसे हवा दें
इसकी हर सोई लौ को उत्तेजित करके जगा दें
इसकी विभीषिका या करुणा नहीं गाएँ
आने वाली पीढ़ी से इसका परिचय कराएँ
इसे बाँहों में भरें
इससे लिपटें
अपने अस्तित्व का परिचय दें ।
हवन में हाथ जलते ही हैं
विश्वास के विभ्रम छलते ही हैं!
आओ! कुछ दिन हम
आग खाएँ
आग ओढ़ें, आग बिछाएँ
आग उगलें, आग गाएँ।
जैसे सावन आता है, भादों आता है
या फागुन आता है
वैसे ही यह आग का मौसम है
बैठे-बिठाए बिना बुलाए
सारे घर आँगन पर छा गया है
हमें आए न आए
पर इसे मजा आ गया है
तो क्या हम डरें ?
हाय-हाय करें? विमूढ़ होकर मरें?
नहीं इसे हवा दें
इसकी हर सोई लौ को उत्तेजित करके जगा दें
इसकी विभीषिका या करुणा नहीं गाएँ
आने वाली पीढ़ी से इसका परिचय कराएँ
इसे बाँहों में भरें
इससे लिपटें
अपने अस्तित्व का परिचय दें ।
हवन में हाथ जलते ही हैं
विश्वास के विभ्रम छलते ही हैं!
इस वक्त जो भी दूर खड़ा रहेगा
बहाना करेगा या सोया पड़ा रहेगा
वह न ‘आहुति’ है न ‘होता’ है
बद्तमीज है, बेईमान है
युग का कलंक है, सदी का श्राप है
कापुरुष है, कोख का सन्ताप है
इस आग में सूरज को स्वाहा कर दें
चाँद को सेक लें
मृत्यु मधु यामिनी के लिए बरामदे तक आ गई है
दरवाजा खोलें
अपनी प्रेयसी का सिंगार देख लें ।
मैं पौरुष को पुकार रहा हूँ
मर्द हो वो मैदान में आए
अपनी गज-भर छाती में सरगम जगाकर
मेरे अग्नि गीतों को मेरे साथ गाए।
हम समवेत स्वर उठाएँ
एक-दो नहीं हजार सदियों तक गाएँ
चाहे विनाश की हो या विकास की
अगर वह आग है
तो उसका घूँघट उठाएँ
उसकी आँखों में आँखें डालें
और उससे कहें
कि हम, हाँ हम
उसके सुहाग हैं।
वह पौरुष आजमाए
वक्ष हाजिर है
वह गृहस्थी बसाए
कक्ष हाजिर है।
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संग्रह के ब्यौरे
दो टूक (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज, कश्मीरी गेट, दिल्ली।
पहला संस्करण 1971
सर्वाधिकार - बालकवि बैरागी
मूल्य - छः रुपये
मुद्रक - रूपाभ प्रिंटर्स, शाहदरा, दिल्ली।
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