श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘आलोक का अट्टहास’ की बारहवीं कविता
‘आलोक का अट्टहास’ की बारहवीं कविता
जीवन की उत्तर-पुस्तिका
जब चुक जाए स्याही
रुक जाए कलम
और झुक जाए रीढ़
तो समझो
मुरझा गया है मन
शुरु हो गई है
अन्दरूनी अनबन
लगना चाहता है
कोई पूर्ण विराम।
रुक जाए कलम
और झुक जाए रीढ़
तो समझो
मुरझा गया है मन
शुरु हो गई है
अन्दरूनी अनबन
लगना चाहता है
कोई पूर्ण विराम।
अब...
लगना चाहे पूर्ण विराम
और बात रह जाए अधूरी
तब जो कुछ है जरूरी
वह मुझसे पूछो।
फाड़ फेंको वह पृष्ठ
सह लो एक और
अनचाहा घर आया कष्ट
जैसे सहते आ रहे थे
अब तक।
नई बिजली
कौंध ही जाएगी तब तक।
छलछलाकर फूट पड़ेगी
नई स्याही
दौड़ पड़ेगी कलम
तन जाएगी रीढ़
साँसों के सितार पर
यूँ ही लगती है मीड़।
अब जो भी रचोगे
वही होगी रचना
इसे ही कहते हैं
अपने ही हाथों
अपनी ही
कॉपी का जँचना।
जाँचो! जाँचो!
अपने जीवन की
उत्तर-पुस्तिका
खुद ही जाँचो!
साँस-साँस
क्या लिखते रहे हो
कभी अपना लिखा
खुद भी तो बाँचो?
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संग्रह के ब्यौरे
आलोक का अट्टहास (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - सत्साहित्य प्रकाशन,
205-बी, चावड़ी बाजार,
दिल्ली-110006
सर्वाधिकार - सुरक्षित
संस्करण - प्रथम 2003
मूल्य - एक सौ पच्चीस रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली
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