श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘आलोक का अट्टहास’ की नौवीं कविता
‘आलोक का अट्टहास’ की नौवीं कविता
साधना का नया आयाम
अजीब जुलूस है यह!
इनके मशालचियों ने
एक-दूसरे की मशालें
बुझाकर
अद्भुत आराधना
की है आलोक की।
इनके मशालचियों ने
एक-दूसरे की मशालें
बुझाकर
अद्भुत आराधना
की है आलोक की।
जो तेल जलाना था
मशालों में
उससे छौंक लीं
अपनी-अपनी
सब्जियाँ
और ले रहे हैं संकल्प
कि
रोशन करेंगे इन
मशालों को
अपने खून से।
अजब आराधक हैं
ये आलोक के
अजब है इनका खेल
ये खूब जानते हैं कि
मशालें खून से नहीं
तेल से जलती हैं
सरेआम गटक गए हैं
ये सारा तेल।
अजीब जुलूस है ये!
जिसके भागीदार
बातें करते हैं पूरब की
पर जाते हैं पश्चिम
की ओर
अपने ही द्वारा रचे
अँधेरे में भी
ये मार रहे हैं एक-दूसरे को
लत्ती
न कोई दीया
न कोई बत्ती
लेकिन अँधेरे में भी
ये खींच लेते हैं
एक-दूसरे की टाँग।
चूँकि अभ्यस्त हैं
इनके हाथ
एक-दूसरे के चरण-स्पर्श के।
इतने छुए हैं
इन्होंने एक-दूसरे के पाँव
कि अब
छूते-छूते इन्हें पकड़ना
आ गया है।
इस खींचतान पर
कोई मलाल नहीं है इन्हें।
अजीब जुलूस है यह !
गति की ऐसी आराधना
अद्भुत है।
लक्ष्यपति हैं एक ही लक्ष्य के
लेकिन कितने द्रुत हैं?
अजीब जुलूस है यह।
सूर्याेपासक पुरखों की
सन्तानों का यह जुलूस
अजीब है
शनैः-शनैः अभ्यस्त
हो गए हैं ये अँधेरे के।
प्रत्येक चाहता है कि
या तो सूरज रहे
उसकी ही मुट्ठी में कैद
या फिर उगे ही नहीं।
त्रिकाल संध्या शब्द तक से
टूट गया है
इनका संस्कारगत सम्पर्क
भूल गए हैं
ये पूर्वाेदय की गायत्री।
अब
नारे और केवल नारे
वे भी भोंडे और फूहड़,
बस
फूट उगाने वाले ही है,
इनकी गायत्री।
ये वादा करते हैं
सूरज उगाने का
पर उगाते हैं अँधेरा
और वह भी घना।
अजीब जुलूस है यह
सूरज को पीठ देकर चलना
और अपने ही सहजन से
किसी-न-किसी बहाने
जलना
इनका एकमात्र कार्यक्रम है।
सचमुच अजीब जुलूस है यह
बड़ी शान से करते हैं
ये अँधेरे की खेती
उसे बोते हैं, उगाते हैं
सींचतें हैं, पालते हैं, पोसते हैं
और लहलहाती फसल पर
गर्वित होकर सोचते हैं।
अँधेरे में भी
बिछा लेते हैं अपने ही
रास्तों में काँटे
गाड़ लेते हैं कीलें
फोड़ लेते हैं
एक-दूसरे की कन्दीलें।
अपने अतीत को भूलना
और वर्तमान को विकृत रखना
भविष्य को नष्ट करना
कोई इनसे सीखे ।
बिना बात के
मारना चीखें
उजाले पर गुर्राना
सुबह और सूरज जैसे
शब्दों तक पर
लात-घूँसे चलाना
इनकी साधना का
नया आयाम है।
घनी काली रातों का
सुहाग है इनका जुलूस
छोड़िए भी
मंजिल-वंजिल की बातें
इन्हें और भी
बहुत सारे काम हैं।
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संग्रह के ब्यौरे
आलोक का अट्टहास (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - सत्साहित्य प्रकाशन,
205-बी, चावड़ी बाजार,
दिल्ली-110006
सर्वाधिकार - सुरक्षित
संस्करण - प्रथम 2003
मूल्य - एक सौ पच्चीस रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली
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