यह संग्रह दा’ साहब श्री माणक भाई अग्रवाल को समर्पित किया गया है।
मैं कितना निर्बल हूँ
(युद्ध में बलि हुए शहीदों को एक श्रद्धांजलि)
तुम!
जो लौट नहीं पाए हो
महयुद्ध की प्रलय भूमि से
अपने मनभावन आँगन को
अपनी चहक भरी बगिया में
अपने घर के उस द्वारे पर
जिसने तुमको आशीषें दे
पावन मन, पुलकित आँखों से
ओझल होने की सीमा तक
मुक्ताओं की महाझड़ी में
बलि-पथ पर हँस कर भेजा था ।
(युद्ध में बलि हुए शहीदों को एक श्रद्धांजलि)
तुम!
जो लौट नहीं पाए हो
महयुद्ध की प्रलय भूमि से
अपने मनभावन आँगन को
अपनी चहक भरी बगिया में
अपने घर के उस द्वारे पर
जिसने तुमको आशीषें दे
पावन मन, पुलकित आँखों से
ओझल होने की सीमा तक
मुक्ताओं की महाझड़ी में
बलि-पथ पर हँस कर भेजा था ।
मंगल तिलक लगाया तुमको
मंगल धागे बाँध भुजा पर
दही खिला, अक्षत अर्पित कर
जिस जननी ने लट चूमी थी,
वह जननी मुझसे कहती है
लो बेटा! यह तार बाँच दो।
शायद मेरा नाहर रण से लौट रहा है
विजय केतु फहराता फर-फर
झट पढ़ दो
जाकर घर-घर
मुझे न्यौतनी हैं सुहागिनें
रणबंके के लिए बधाई गववाने को।
और?
मुझे चुभ रहीं बर्छियाँ
सर मेरा यद्यपि ऊँचा है
पर वाणी की वाणी नीची है।
बोल नहीं पाता हूँ बिलकुल
जड़ा-खड़ा बस सोच रहा हूँ
कि, तुम जो लौट नहीं पाए हो
तुम कितने निर्मम थे!
मैं तुमसे ईर्ष्या करता हूँ
मैं कितना निर्बल हूँ!
सबका सब इतिहास तुम्हीं ने लिख डाला है
एक पृष्ठ भी नहीं रखा रीता
जिसमें मैं कभी नाम अपना लिख देता।
मैं खुद को धिक्कार रहा हूँ।
तुम कितने निर्मम थे
मैं कितना निर्बल हूँ!
महामृत्यु के मुख पर तुमने गोद दिया
गुदना देखो तो,
रणमेलों में बारूदों पर बैठे-बैठे
महाकाव्य लिख डाला पूरा
अर्पित भी कर दिया जननी को
मुझ से कहते हो ‘पढ़ लेना’
और निवेदन के पृष्ठों पर क्षमा माँगते हो त्रुटियों की?
तुम कितने निर्मम थे
मैं कितना निर्बल हूँ!
मैं तुमसे ईर्ष्या करता हूँ।
सारा विश्व चकित है तुम पर
जननि तुम्हें नमन करती है
ऋतुएँ तुम पर न्यौछावर हैं
शिशु पीढ़ी वन्दन करती है।
तन, मन, धन, जीवन ले लेते
साँसों का उपवन ले लेते
मेरा हर कण-कण ले लेते
लेकिन तुमने याद दिलाया होता वह पल
जो तुम मुझसे छिपा गए हो।
पर, तुम कितने निर्मम थे।
मैं कितना निर्बल हूँ!
मैं तुमसे ईर्ष्या करता हूँ।
तुम!
जो लौट नहीं पाए हो
तुम कहते हो,
‘ओ देशवासियों!
पहिले कफन न देना हमको
अगर पीठ पर एक घाव हो
चार ठोकरें और लगाना!’
तुम कितने निर्मम थे
मैं कितना निर्बल हूँ!
मैं तुमसे ईर्ष्या करता हूँ।
तुम,
जो लौट नहीं पाए हो।
तुम तो यश सागर ले आए
मैं अपना अपयश किसको दूँ?
तुमने सरबस मुझे दिया है
मैं अपना सरबस किसको दूँ?
जो कुछ मेरे पास बचा है
अर्थ रहा अब उसमें कितना?
पता नहीं तुम क्या सोचोगे
पर मैं केवल सोच रहा हूँ
देखो! पछतावा करता हूँ
यह बेला फिर कब आएगी
फिर कब ऐसे ठट्ठ जुटेंगे
महामृत्यु फिर कब ललकेगी
फिर कब ऐसे ज्वार उठेंगे
तुमने मुझको लूट लिया है
मुझे उम्र के अभिशापों में गाड़ दिया है
यौवन गाली-सा लगता है
बड़ी घुटन होती है भाई!
किस मरघट को जाकर दे दूँ धक-धक जलती यह तरुणाई?’
हर मरघट दुतकार रहा है
थूक रहा है
थू करता है
तुमने कैसी मृत्यु वरी यह
ऐसे भी कोई मरता है?
पर, तुम कितने निर्मम थे
मैं कितना निर्बल हूँ!
मैं तुमसे ईर्ष्या करता हूँ।
तुम!
जो लौट नहीं पाए हो,
सचमुच ही ईर्ष्या करता हूँ
तुम कितने निर्मम थे!
मैं कितना निर्बल हूँ!
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संग्रह के ब्यौरे
दो टूक (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज, कश्मीरी गेट, दिल्ली।
पहला संस्करण 1971
सर्वाधिकार - बालकवि बैरागी
मूल्य - छः रुपये
मुद्रक - रूपाभ प्रिंटर्स, शाहदरा, दिल्ली।
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