भला आदमी (‘मनुहार भाभी’ की उन्नीसवीं कहानी)



श्री बालकवि बैरागी के
प्रथम कहानी संग्रह
‘मनुहार भाभी’ की उन्नीसवीं कहानी




भला आदमी  

आदमी को भला होना चाहिए पर इतना भला भी नहीं होना चाहिए कि नींद ही हराम हो जाए। डॉ. कमल इसी पछतावे में आज सो नहीं पा रहे थे। कभी इस करवट तो कभी उस करवट। पर नींद थी कि काया से दूर भागी चली जा रही थी।

जब से डॉ. कमल ने इस शहर में अपना क्लीनिक खोला है तब से आसपास के चार-चार, पाँच-पाँच सी किलोमीटर दूर-दूर तक के बीमार अपनी-अपनी बीमारियों को लेकर अपने रिश्तेदारों के साथ यहाँ पहुँचने लगे हैं। भगवानजी ने डॉ. कमल के हाथ में यश की लकीर भरपूर लम्बी और गहरी दे रखी है। उनका अस्पताल बीमारों से लदालद भरा रहता है। जूनियर डॉक्टर, नर्सें, दाइयाँ, कम्पाउण्डर, वार्ड बॉय और सफाई कामगार मशीन की तरह मरीजों को देखते और परिचर्या करते रहते हैं। क्लीनिक के आसपास छोटे-बड़े दुकानदारों ने अपनी-अपनी गुमटियाँ लगा कर अच्छी-खासी रोटी कमाने का सिलसिला बना लिया है। सामने वाले खुले मैदान की पटरी पर इन दस-पाँच दुकानदारों ने अपने बाजार का नाम ही कमल रख लिया है। इतना यश, इतनी प्रसिद्धि और इतनी लोकप्रियता पाने के बाद डॉक्टर कमल को किसी तरह का दम्भ नहीं था। न वे प्रमादी थे न बड़बोले। अपने काम को भगवान का काम मान कर बिना किसी लोभ-लालच के करते। उन्हें अपने आप से ज्यादा अपने माता-पिता और पहली कक्षा से डॉक्टरी तक की पढ़ाई करानेवाले अपने शिक्षकों, प्रोफेसरों गुरुओं का ध्यान रहता था। जितनी लम्बी फेहरिस्त उनके पास डिग्रियों की थी उतने ही वे ईश्वर भीरु और विनम्र थे। अपना जन्म नगर छोड़ कर उन्होंने अपने जीवन-यापन के लिए इस शहर को चुना, इससे ही इस शहर के भद्र नागरिक अपने आपको गौरवान्वित मानते थे। वे भगवान को धन्यवाद देते थे कि उसने डॉक्टर को यहाँ बसने की सद्बुद्धि दी वर्ना भला इतना भला आदमी और इतना सफल डॉक्टर भला सात समन्दर पार किसी भी दूर देश में जाकर अपनी महारत दिखा देता तो आज उसके वारे-न्यारे हो जाते। पर डॉक्टर  कमल हैं कि उन्होंने अपने देश से बाहर जाने का सोचा भी नहीं। पॉँच-पाँच सौ किलोमीटर दूर तक के लोग डॉक्टर कमल के कारण अपनी सेहत का सुरक्षित मानें इससे अधिक और भला क्या चाहिए? उनकी भलमनसाहत, उनकी सादगी, उनकी ईश्वर-भक्ति, उनकी नियमितता और उनकी शफाकत के किस्से किंवदन्तियों का स्थान ले चुके थे। शहर में किसी के यहाँ कोई साथी-संगाती मित्र-मुलाकाती या नाते-रिश्तेदार आते तो नगर-निवासी बड़े गौरव के साथ उन्हें डॉ. कमल के क्लीनिक तक केवल इस कारण घुमाने लाते थे कि डॉक्टर कमल को एक नजर देख सकें। बड़ी शान से लोग अपने मेहमानों को कहते थे, देखिए वो हैं हमारे डॉक्टर कमल। डॉक्टर अपने काम से काम रखते। लोग उन्हें दूर या पास से देखते और सम्मान दर्शा कर चले जाते।

आज रात ऐसे डॉक्टर को नींद नहीं आ रही थी। वे जानते थे कि केवल भलमनसाहत ने उनकी नींद फुर्र कर दी है। अस्पताल में रात का राउण्ड लेकर मरीजों को दवा वगैैरह की ताकीद करके डॉक्टर कमल ने रात का ड्यूटी चार्ट देखा। स्टाफ को सावधान किया। नर्सों को निर्देश दिए और करीब दस-सवा दस बजे हमेशा की तरह डॉक्टर कमल क्लीनिक के पास वाले अपने आवास में आराम करने के लिए सीढ़ियाँ चढ़ गए। रात की ड्यूटी वाले जूनियर डॉक्टर ने डॉक्टर कमल को ऊपरी मंजिल के दरवाजे तक छोड़ा। शुभ रात्रि कह कर अभिवादन किया।

हमेशा की तरह डॉक्टर ने अपने जूनियर को हिदायत दी कि रात-बिरात कोई भी पेशेन्ट आए तो बिना किसी झिझक के घण्टी बजाकर उन्हें जगा लिया जाए। ऐसा नहीं हो कि कोई मरीज तड़पता रहे और मैं सोता रह जाऊँ। बीमार के बहाने भगवान हमें पुकारता है इस बात को याद रखना। डॉक्टर कमल का यह वाक्य सनातन था। वे प्रायः इसको दुहराया करते थे और रात को जो भी उन्हें ऊपर तक छोड़ने जाता था उससे यह बात कहना भूलते नहीं थे। ज्यों ही यह वाक्य पूरा होता कि डॉक्टर को ऊपर तक छोड़ने आने वाला शुभ रात्रि कह कर सीढ़ियाँ उतर उतर जाता था।

बैठक का कमरा पार करके डॉ. कमल अपने शयन-कक्ष में पहुँचे। टाई की गाँठ खोली। उसे खूँटी पर टाँगा। मौजे उतार कर पलंग पर धँस से गए। पास वाले पलंग पर दोनों बेटे-रिद्धि कुमार और सिद्धि कुमार-गहरी नींद सो रहे थे। दोनों पर डॉक्टर ने एक पिता की वात्सत्य-भरी नजर डाली। लम्बी साँस ली और पत्नी को आवाज लगाने ही वाले थे कि तह किया हुआ नाइट-सूट हाथ में लिए उनकी पत्नी लतिका सामने आकर खड़ी हो गई। ‘लो, कपड़े बदल लो, फ्रेश हो लो। खाना तैयार है। बच्चे अपना होम वर्क करके अभी-अभो सोए हैं। जरा देर तो उन्होंने रास्ता देखा कि आप आ जाएँ, आपसे चुहल करें पर.....।’
 
‘मेरा खाना खाने का मन नहीं है यार.....तुम खा लो। मैं तब तक......।’ 

मर्द का मन मापने में औरत को एक पल भी शायद ही लगता हो। फिर, लतिका जैसी सहधर्मिणी से भला क्या तो छिपता औेर कैसे छिपता!

लतिका अपने आप में एक मिसाल थी। रामजी ने जोड़ा भी, सोच-समझ कर ही बनाया था। एक भरे-पूरे घर की बहू, एक यशस्वी डॉक्टर की पत्नी, दो भाग्यशाली बच्चों की ममतामयी माँ और अपनी गहस्थी के प्रति एकदम जागरूक। बात-बात में हँँसती-खिलखिलाती। ओंठों पर लिपस्टिक की जगह मुस्कान का लेप लिपटाती लतिका ने जिस तरह अपने सुहाग डॉक्टर कमल के जीवन में बारहों मास बसन्त बना रखा है उसके तो क्लबों और परिवारों में उदाहरण दिए जाते थे। शहर में डॉक्टर तो पचासों थे पर अकेले डॉक्टर कमल और लतिका का जोड़ा वह जोड़ा था जिसके फोटो यार-दोस्तों और कमल बाजार की दुकानों में देवी-देवताओं की जगह लगे हुए थे। लोग जितनी चर्चा डॉक्टर कमल की करते थे उतनी ही लतिका की भी करते थे। कहने वाले तो यहाँ तक कहते थे कि डॉक्टर कमल की जिन्दगी में जब से लतिका आई है, देख लो कितना कुछ बदल कर परिवार कहाँ से कहाँ पहुँचा है! एक-एक का पग-फेरा है साहब! 

किस्से लतिका की हँसी के मशहूर थे। कड़वी से कड़वी और कसैली से कसैली बात को लतिका कुछ इस तरह से मिठास की तरफ मोड़ देती थी कि लोग खिलखिला पड़ते थे। और तो और, किसी मौत-मरण में भी अगर लतिका दिलासा देने या मातमपुर्सी करने पहुँच जाती थी तो घर-परिवार वाले एकदम रोना-धोना बन्द कर देते थे। मन ही मन सब समझ जाते थे कि अब कहीं न कहीं से खिलखिलाहट बिखर जाएगी और दस-पाँच मिनिट में ऐसा होता ही था। बात जब कभी डॉक्टर कमल तक आती थी तो हल्के से उलाहने के तौर पर यदा-कदा डॉक्टर अपनी ओर से भी लतिका से कह बैठते थे कि ‘यार! मरने वालों को कम से कम रोने तो ढंग से दे। जहाँ जाती है बस अपनी ही फसल उगा कर आ जाती है।’ और लतिका बहुत गम्भीर हो कह बैठती-‘यार डॉक्टर! इसी बात पर हो जाए एक ठहाका....।’.और सारा कमरा खिखिलाहटों से भर जाता था।

पर आज डॉक्टर कमल सचमुच अनमने थे। न खाना खाने में मन लग रहा था न गले में फँसी फाँस को निकाल पा रहे थे। इतना सा ही बोले - ‘सो लेने दे यार! कोशिश करता हूँ कि नींद आ जाए।’ और डॉक्टर कमल बिस्तर पर लेट गए। 

यह लतिका के सम्पूर्ण व्यक्तित्व और जीवन जीने के जीवटदार उपक्रम को चुनौती थी। लतिका यूँ परास्त हाने वाली नहीं थी। डॉक्टर कुछ कहते उससे पहले ही अपनी शैली में पूछा-‘अस्पताल में सब ठीक हैं?’ डॉक्टर बोले, ‘हाँ।’ ‘आपकी तबीयत?’ उत्तर था - ‘बिलकुल ठीक।’ ‘किसी दाई-नर्स का कोई विशेष लफड़ा?’ लतिका ने सवालिया नजरों से डॉक्टर की ओर देखा। वह बराबर मुस्कराए जा रही थी। ‘हिश्त।’ डॉक्टर का छोटा-सा झिड़की भरा जवाब कमरे में तैर गया।  ‘वो एम.बी.बी.एस. के चौथे और पाँचवें साल वालियाँ तो आज मन-महल में नहीं थिरकने लगी हैं?’ कमरा खिलखिलाहटों से भर गया।’ ‘यार लतिका, क्यों यहाँ-वहाँ की गोटियाँ फिट कर रही है।’ डॉक्टर ने बात सँभाली। ‘तब फिर करो ऐसा डॉक्टर बाबू कि आधा चम्मच पिसी हल्दी डालकर गुनगुना गरम दूध पी लो। हल्दी एण्टीबॉयोटिक भी है और एण्टीडायबिटीक भी। इससे पेट के विकार दूर हो जाते हैं और जब पेट साफ रहता तो मेडिकल वाले कहते हैं कि दिमाग हल्का हो जाता है। अपने प्रोफेसरों का पढ़ाया अपने पर ही लागू कर लो यार! आप तो जानते ही हो कि सेहत के लिए नींद जरूरी है।’ लतिका हँसे जा रही थी। डॉक्टर कमल के चेहरे से लग रहा था कि खीज रहे हैं। लतिका ने एक सवाल और दागा, ‘चलो डाक्टर सच-सच बताआ! माथे पर छत सलामत है?’ जवाब मिला, ‘हाँ।’ ‘बच्चे सेहतदार और सुखी हैं।?’ डॉक्टर ने रिद्धि कुमार और सिद्धि कुमार को सरसरी नजर से देखकर कहा, ‘हाँ।’ ‘सिर माथे किसी का कर्जा तो नहीं है?’ ‘बिल्कुल नहीं।’ ‘नए मकान और प्लाट की रजिस्ट्री हो गई।?’ ‘हाँ, हाँ यार, सब हो-हुआ गया।’ डॉक्टर झल्ला कर बोले। ‘तब फिर कमल कुमारजी खरे! खर्राटे भर कर सोते क्यों नहीं हो? दिन आराम से कट गया। कल की कल देखी जाएगी। अपनी रात क्यों ख़राब कर रहे हो?’ और डॉक्टर का सिर सहलाती हुई मीठी-सी पुचकार पुचकारती लतिका बोली, ‘देखो देवता! अपन ने तो कोई अफड़ा-लफड़ा करके अपने हाथ में दिया नहीं है। सुना करते थे कि लीला माँ और विमल दादा का कोई बेटा है-कमल कुमार। भला लड़का है। डॉक्टरी-वाक्टरी की पढ़ाई कर रहा है। नवल और निर्मल जैसे लड़के अपने को देवर के तौर पर मिलेंगे। विमल दादा जैसा ससुर और लीला माँ जैसी सास मिलेगी। बस, तुलसी माता को एक दीपक जला दिया और माथा पल्लू से ढाँक लिया। अब यह गाँठ लग गई है जनम-जनम की। अगर अपने होते हुए अपने सुहाग की एक रात भी आराम से नहीं कटी तो यार! लानत है इस लतिका की लन्तरानियों पर।’

‘चलो! पहले अपने मन की गाँठ खोल दो और अपन जैसा अपने से बोल दो, और गरमा-गरम रोटी-चपाती खा-खुवाकर चैन की नींद सो लो। पूरा पौन घण्टा आपने लतिका जैसी लहलहाती पर्सनालिटी का नष्ट कर दिया है। हँसो, वर्ना फिर गुदगुदी चलेगी और कमरे में भागते फिरोगे।’

डॉक्टर कमल के घुटने टिक गए। बोले, ‘यार! यूँ देखो तो बात कुछ भी नहीं है और वैसे देखो तो सोसायटी में किरकिरी हो गई है। तकलीफ मुझे यह है  कि इस मामले  में मेरा साथ मेरी बीबी तक ने नहीं दिया।’ 

लतिका को झटका लगा। वैवाहिक जीवन तो खैर ठीक है पर अपने ही समूचे जीवन में लतिका ने वैसा कभी कुछ नहीं किया या सोचा तक नहीं कि जिससे कि किसी का अपमान हो या किसी का मान मरे। संयत होकर लहराती हुई बोली -‘यार! अब बता भी दो कि कौन-सी लाटरी खुल गई है जो धमाके पर धमाके होते चले जा रहे हैं।’ डॉक्टर कमल ने लम्बी साँस छोड़ी। पतलून की जेब में से लिफाफा निकाला। भीतर वाला कागज बाहर निकाल कर लतिका को थमाते हुए बोले-‘यार! यह गृह सचिव महोदय का पत्र आज ही मिला है। मैंने एक रिवाल्वर का लायसेंस माँगा था। वह नामंजूर हो गया है। सभी जानते थे कि मेरा लायसेंस अवश्य मिल जाएगा। पर एक अदने से हैड कांस्टेबल ने ऐसी कलम मार दी कि सारा किया-कराया चौपट हो गया। दुख इस बात का है कि डॉ. कमल की पत्नी भी इस हैड साहब के साथ रही। रोना इसी बात का है।’ लतिका तब भी सहज ही सुनती रही।

डॉक्टर कमल ने मन की गाँठ खोली, ‘हुआ यह कि अपना आवेदन जाँच-पड़ताल, पूछ-परख और मेरे चरित्र के सत्यापन आदि के लिए यहाँ आया। यह सरकार का नियम है। एक दिन क्लब में अपने पुलिस आफिसर नायडू साहब ने मुझसे कहा था कि वे अपनी रिपोर्ट के लिए पुलिस थाने के लिए हैड साहब बिदेसरी को अपने यहाँ भेजेंगे। हैड साहब कुछ पूछताछ करेंगे। अपना शेरा लगाएँगे। रपट ऊपर जाएगी और सारा काम रूटीन का है। आपका लायसेंस बन जाएगा। और उठते-उठते नायडू साहब ने कहा था कि वैसे तो कोई जरूरी नहीं पर आज के जमाने को देखते हुए हैड साहब को एक पचास का नोट जरूर थमा देना। बस, कोई विशेष बात तो है नहीं।’ डॉ. कमल बोलते जा रहे थे, ‘अब बताओ लतिका!  जब मैं किसी से गैर-वाजिब पैसा लेता नहीं हूँ तो भला ये पचास रुपये कैसे दे देता? मैंने साफ मना कर दिया था कि पचास रुपये तो क्या, पचास पैसे भी नहीं दूँगा। मेरे सामने ही उन्होंने बिंदेसरी हेड साहब को बुलाया। अपनेवाले कागज थमाए और जल्दी ही अपनी रिपोर्ट देने को कह दिया। हैड साहब ने सेल्यूट हम दोनों को किया था और बस! मैं अपने काम में लग गया। नतीजा सामने है। आज जब यह कागज मिला तो मैं नायडू साहब से मिलने गया। उन्होंने फाइल मेरे सामने रखी। इतना औेर पूछा कि बिंदेसरी को आपने पचास रुपए दिए थे या नहीं। मैंने मना कर दिया कि उसके बाद न तो बिंदेसरी मुझसे मिले न उन्होंने मुझसे कोई पूछताछ ही की। हाँ, वे चार-पाँच बार अस्पताल में आए जरूर थे। आए दिन सरकार वाले और न जाने कहाँ-कहाँ के लोग अस्पताल में आते रहते हैं। दुआ-सलाम सभी से होती है। मैंने उसकी चक्करबाजी को उस हिसाब से लिया ही नहीं।’

लतिका पूरी अल्हड़ता से चहक उठी-‘अरे हाँ, हेड साहब तो मुझसे भी पूछताछ कर गए हैं। पास-पड़ोस वालों से भी उन्होंने तरह-तरह के सवाल किए। आपके कई मरीजों और उनके साथ वालों से भी उन्होंने जानकारियाँ लीं। सारी बात का मतलब एक ही था कि डॉक्टर कमल कैसे आदमी है? उनका किसी से कोई रगड़ा-झगड़ा तो नहीं है? उनके बाल-बच्चे सुरक्षित तो हैं ना? वगैरह-वगैरह। सभी ने एक ही तरह की बात कही कि डॉक्टर कमल बेहद भले आदमी हैं। उनके कारण सारी बस्ती शान से जी रही है। न उनका किसी से रगड़ा-झगड़ा। उनकी जान को या उनके कारण किसी की जान को भला क्या खतरा हो सकता है? उनके कारण कोई दुखी नहीं है। सभी से उनका भाईचारा है। भगवान ऐसी भलमनसाहत सभी को दे। वे हैं तो सभी तरफ सुख-शान्ति है। मैंने भी यही सब कहा था। हमारा भला किस से बैर-बनाव हुआ या रहा? ऐसा सुखी संसार किसे मिलता है। भगवान की कितनी दया है हम पर!’

डॉक्टर साहब ने माथा ठोक लिया, ‘बस यही सब तो हैड साहब ने अपनी रिपोर्ट में लिख कर सारा कूड़ा कर दिया है। सरकार का कहना है कि ऐसे भले आदमी को आखिर किसी बन्दूक, रिवाल्वर या पिस्तौल की जरूरत कैसे हो सकती हैं। अगर हैड साहब को इस घर से पचास रुपए मिल जाते तो....।’

लतिका ने डॉक्टर कमल का वाक्य पूरा नहीं होने दिया। बोली, ‘तो क्या वो आपको लुच्चा-लफंगा लिख देते? चलिए मैं अभी यह नायडू साहब को टेलीफोन करके कह देती हूँ। आपसे नया आवेदन ले लें और मेरा बयान उसमें शामिल करें कि मेरा पति जिसका कि नाम डॉक्टर कमल कुमार खरे है निहायत बदमाश, नालायक, क्रूर, कुटिल, लफंगा और सिरफिरा है। मैं दस्तखत करके दे दूँगी।’

डॉक्टर के दीदे फटे रह गए। वे सिर से पाँव तक लतिका को देखते रहे। लतिका थी कि खिलखिलाए जा रही थी। कह पड़ी, ‘यार डॉक्टर बाबू! इस सड़ी-सी बात के कारण श्रीमान की नींद हराम हो गई? चलो आराम से सो जाओ। पहले भर पेट खाना खाओ। रोज की तरह बादाम मिला दूध छानो। बच्चों को सहलाओ। मन और मूड हो तो लतिका मैडम की सेवा करो या सेवा लो। शरीफ मर्द की तरह पेश आओ। धन्यवाद दो बिंदेसरी हेड साहब को कि पुलिस में  होते हुए उन्होंने सचाई लिख दी। नहीं मिला लायसेंस तो नहीं मिला। इसमें मुँह लटकाने वाली कौन-सी बात हो गई। अगर यही सचाई है तो मैं कल सुबह अपने नौकर के हाथ बिंदेसरी हेड साहब के घर मिठाई का डिब्बा और पचास नहीं पूरे सौ रुपए का नोट भेजूँगी और उनका आभार मानूँगी। उनकी कृपा है कि मेरे बच्चे भले आदमी की औलाद बने रह गए। इस जमाने में भले मानस का सर्टिफिकेट और वह भी पुलिस से मिल जाए! सब विमल दादा और लीला माँ का पुण्य मानो। वर्ना तो......’

लतिका ने अनायास एक मोमबत्ती जलाई और सरकारी कागज मय लिफाफे के उसकी लौ पर रख दिया। कागज भभका और पूरे कमरे में डॉ. कमल की भलनसाहत का उजाला और दोनों पति-पत्नी की खिलखिलाहटें भर गईं।

दोनों सोने की तैयारी कर ही रहे थे कि दरवाजे पर किसी ने घण्टी का बटन दबाया। डॉक्टर ने दरवाजा खोला। वार्ड ब्वाय खड़ा था, ‘डॉक्टर साहब, जल्दी चलिए। एक सीरियस पेशन्ट आया है।’

लतिका ने अर्द्धरात्रि की ताजगी से कहा-‘जाओ मेरे भले मानस! अपनी भलमनसाहत की परीक्षा दो। बीमार के बहाने भगवान ने आवाज दी है।’

और भला मानस अस्पताल के लिए अपने कमरे की सीढ़ियाँ उतर गया।
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‘मनुहार भाभी’ की बीसवीं कहानी ‘बाइज्जत बरी’ यहाँ पढ़िए।


कहानी संग्रह के ब्यौरे

मनुहार भाभी - कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - नीलकंठ प्रकाशन, 1/1079-ई, महरौली, नई दिल्ली-110030
प्रथम संस्करण 2001
मूल्य - 150/- रुपये
सर्वाधिकार - लेखक
मुद्रक - बी. के. ऑफसेट, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032


रतलाम के सुपरिचित रंगकर्मी श्री कैलाश व्यास ने अत्यन्त कृपापूर्वक यह संग्रह उपलब्ध कराया। वे, मध्य प्रदेश सरकार के, उप संचालक, अभियोजन  (गृह विभाग) जैसे प्रतिष्ठापूर्ण पद से सेवा निवृत्त हुए हैं। रतलाम में रहते हैं और मोबाइल नम्बर 94251 87102 पर उपलब्ध हैं।
  


6 comments:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(२३-०९-२०२१) को
    'पीपल के पेड़ से पद्मश्री पुरस्कार तक'(चर्चा अंक-४१९६)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  2. जी। इस चयन के लिए बहुत-बहुत धन्‍यवाद।

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  3. बेहतरीन प्रस्तुति!

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    1. जी। टिप्‍पणी के लिए बहुत-बहुत धन्‍यवाद।

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  4. बहुत सुंदर कहानी।

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    1. जी। टिप्‍पणी के लिए बहुत-बहुत धन्‍यवाद।

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