समर्पण
नवगीत के पाणिनी
स्व. पण्डित श्री वीरेन्द्र मिश्र
को
समूची छन्द-श्रृद्धा सहित
सादर-सविनय
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छन्द
आज मैने सूर्य से, बस जरा सा यूँ कहा
‘आपके साम्राज्य में, इतना अँधेरा क्यूँ रहा?’
तमतमा कर वह दहाड़ा -“मैं अकेला क्या करूँ?
तुम निकम्मों के लिये, मैं ही भला कब तक मरूँ?
आकाश की आराधना के, चक्करों में मत पड़ो
संग्राम यह घनघोर है, कुछ मैं लड़ूँ कुछ, तुम लड़ो।’
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अनायास
(कवि का आत्म-कथ्य)
मेरी अपनी यायावरी में अनायास भाई श्री नरेन्द्र चंचल एक दिन मुझे भोपाल में उपलब्ध हो जाते हैं और मेरे साथ वाले कागज पत्रों में अस्त-व्यस्त, इधर-उधर रखी इन कविताओं को देखते हैं। बात अक्रम ही आगे बढ़ती है और बस, यह संग्रह आकार ले लेता है।
निरन्तर लिखना, छपना, बोलना, घूमना और ताजातम पढ़ना मेरी जीवनचर्या का मूल चरित्र है। यदि विगत वर्षों का अपना लिखा और छपा मैं इसी तरह संकलित करता जाऊँ तो ऐसी कई पुस्तकें निकल आयेंगी। जब-जब अपने लिखे और छपे, किन्तु यत्र-तत्र बिखरे पड़े पृष्ठों के पुलिन्दों को मैं देखता हूँ तो घबराकर आँखें बन्द कर लेता हूँ। भिन्न-भिन्न विधाओं में न जाने क्या और कितना लिखता चला जा रहा हूँ। सोचता हूँ कि इन्हें क्रम दे दूँ। प्रकाशक मित्रों के उलाहने आते हैं और मैं अपने ‘लीचड़पन’ से लज्जित होकर हीले-हवाले करता रहता हूँ। बहाने बनाता हूँ।
.....और ‘मन ही मन’ की इस यात्रा में वह मोड़ भी ‘अनायास’ ही आ गया जब यह पाण्डुलिपि ‘पड़ाव प्रकाशन’ के अधिष्ठाता भाई श्री राजुरकर राज के हाथों में जा पहुँची। मैं ‘पड़ाव प्रकाशन’ का बहुत आभारी हूँ कि अपने संघर्ष काल में भी दुस्साहस करके इन पृष्ठों को आप तक पहुँचाया। बीसवीं सदी के समापन काल में हिन्दी कविता की पुस्तक छापना सचमुच दुस्साहस का ही काम है। ‘पड़ाव प्रकाशन’ यदि यह सात्विक साहस नहीं करता तो ‘मन ही मन’ इस रूप में आप तक शायद ही पहुँच पाता।
अब यह ‘मन ही मन’ आप तक पहुँचाने में प्रकाशक संस्थान के सिवा यदि में एकल आभारी हूँ तो भाई श्री नरेन्द्र ‘चंचल’ का, जो उन्होंने इतना कुछ मुझसे करवा लिया।
मैं रोमाचित होकर विह्वल और विसुध हूँ कि मेरे अग्रज प. श्री वीरेन्द्र मिश्र को मैं ये पृष्ठ उनके जीते जी अर्पित नहीं कर सका। नवगीत के वे पाणिनी थे और छन्द-स्वच्छन्द कुछ भी हो ‘लय’ उनकी सम्पदा रही। ‘स्वर’ उनका साधु था। मैं श्रद्धांजलि के तौर पर ही यह पुस्तक उन्हें समर्पित करके स्वयं को कुछ हल्का कर रहा हूँ।
आशीर्वाद मुझे सभी का चाहिये। प्रमाण पत्र जिनसे लेना था वे सब के सब शारदा लोक को चले गये। मेरा मतलब गीत और कविता के कसौटी व्यक्तित्वों से है। अस्तु।
मेरा प्रणाम और ‘मन ही मन’ स्वीकारें।
-बालकवि बैरागी
मनासा (मध्यप्रदेश)
जिला मन्दसौर 458110
मन ही मन (कविता संग्रह)
कवि -बालकवि बैरागी
प्रकाशक - पड़ाव प्रकाशन, 46-एल.आय.जी. नेहरू नगर, भोपाल-462003
संस्करण - नवम्बर 1997
मूल्य - 40 रुपये
आवरण - कमरूद्दीन बरतर
अक्षर रचना - लखनसिंह, भोपाल
मुद्रक - मल्टी ग्राफिक्स, भोपाल
कविता संग्रह ‘दरद दीवानी’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।
कविता संग्रह ‘गौरव गीत’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।
मालवी कविता संग्रह ‘चटक म्हारा चम्पा’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।
कविता संग्रह ‘भावी रक्षक देश के’ के बाल-गीत यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगले गीतों की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।
कविता संग्रह ‘वंशज का वक्तव्य’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी
कविता संग्रह ‘जूझ रहा है हिन्दुस्तान’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी
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यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है।
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती।
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती।
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।
किताब के बारे में जानकर बहुत अच्छा लगा.
ReplyDelete"...कुछ मैं लडूं, कुछ तुम लड़ो"
बहतु ही खुबसुरत छंद है.
बैरागी जी को तहेदिल से शुभकामनाएं.
नई पोस्ट पुलिस के सिपाही से by पाश
ब्लॉग अच्छा लगे तो फॉलो जरुर करना ताकि आपको नई पोस्ट की जानकारी मिलती रहे
टिप्पणी के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। बैरागीजी अब हमारे बीच नहीं रहे। 13 मई 2018 को उनका निधन हो गया।
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