.....मैं काँग्रेस के मंच से हिन्दी मंच पर आया हूँ। सो, मैंने उस महान् संस्था के उपकार को नहीं भूलना चाहिये। मेरी नैतिकता मुझे इसके लिये हमेशा आगाह करती रहती है। .....मुझे लोकप्रियता देने में इन गीतों का बहुत बड़ा योगदान है। पूरे देश के आर-पार मेरा एक विशाल परिवार इन गीतों ने तैयार किया है। .......न इनका कोई साहित्यिक मूल्य है न इनमें कोई साहित्यिक बात ही है। फिर भी ये पुस्तकाकार छपे हैं। .....मेरे लिये यह जरूरी था कि इनको छपा कर आप तक पहुँचाऊँ।
- 1 -
शस्त्र धारो हाथ में, तुम चल पड़ो
कोई हो ना साथ में, तुम चल पड़ो
रात हो या प्रात में, तुम चल पड़ो
सेनानियों! सन्नद्ध हो
बोलो प्रलय साकार है
त्यौहार है, त्यौहार है
मरण बेला आ गई.....
- 2 -
मातृ भू की जय पुकारो, चल पड़ो
तारुण्य के दर्पित अंगारों, चल पड़ो
आततायी को संहारो, चल पड़ो
अभिमानियों! उत्तिष्ठ हो
रिपु का लगा अम्बार है
त्यौहार है, त्यौहार है
मरण बेला आ गई.....
- 3 -
कसमसाती हैं भुजाएँ, चल पड़ो
छटपटाती हैं शुभाएँ, चल पड़ो
तिमिलाती हैं शिराएँ, चल पड़ो
बलिदानियों! प्रतिशोध लो
उन्मेष की मनुहार है
त्यौहार है, त्यौहार है
मरण बेला आ गई.....
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कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - पिया प्रकाशन, मनासा (म. प्र.)
आवरण - मोहन झाला, उज्जैन
कॉपी राइट - ‘कवि’ (बालकवि बैरागी)
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ,
प्रकाशन वर्ष - 1966
मूल्य - 1.50 रुपये
मुद्रक - रतनलाल जैन,
पंचशील प्रिण्टिंग प्रेस, मनासा (म. प्र.)
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यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है।
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा की पोती।
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।
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