श्री बालकवि बैरागी के काव्य संग्रह
‘वंशज का वक्तव्य’ की ग्यारहवीं कविता
‘वंशज का वक्तव्य’ की ग्यारहवीं कविता
यह संग्रह, राष्ट्रकवि रामधरी सिंह दिनकर को समर्पित किया गया है।
अभेद
वे आये
और अपनी पीठ पर
एक भारी भरकम गट्ठर लाद कर लाये ।
न लस्त, न श्लथ
न थकान का अता
न पसीने का पता
एकदम तरोताजा
खटखटाते हुए मेरा दरवाजा
उतार दिया गट्ठर मेरी देहरी पर।
प्रतीक्षा नहीं की अभिवादन की।
खोल दिया गट्ठर।
मैं देखता रहा उनकी कुटिल मुसकान
तब तक मेरा घर, आँगन,
और पूरा मकान ही क्या
समूचा आसमान
भर गया अँधेरे से
मेरा पेट, पीठ, हाथ, हरकत
हकीकत और अब समग्र चेतना
छटपटाने लगी उस अंधेरे में।
मैं निरीह, निराश, असहाय, अनाथ
चीख रहा हूँ इस अनिच्छित घेरे में ।
मेरे क्रन्दन के सिवाय सुनाई पड़ रहा है
उनका धूर्त अट्टहास
वे भी सटे ही बैठे हैं
ठीक मेरी चेतना के आसपास।
कितने खुश हैं वे
मेरे इस हाल पर
उनका सुख यह है कि
उन्होंने पोत दिया है अँधेरा
एक जिन्दा मशाल पर।
और तभी मैं सोचता हूँ
यह ‘मैं’ केवल मैं ही नहीं
शायद ‘तुम’ भी हो।
क्योंकि तुम केवल ‘तुम’ ही नहीं
भले मानस की दुम भी हो।
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और अपनी पीठ पर
एक भारी भरकम गट्ठर लाद कर लाये ।
न लस्त, न श्लथ
न थकान का अता
न पसीने का पता
एकदम तरोताजा
खटखटाते हुए मेरा दरवाजा
उतार दिया गट्ठर मेरी देहरी पर।
प्रतीक्षा नहीं की अभिवादन की।
खोल दिया गट्ठर।
मैं देखता रहा उनकी कुटिल मुसकान
तब तक मेरा घर, आँगन,
और पूरा मकान ही क्या
समूचा आसमान
भर गया अँधेरे से
मेरा पेट, पीठ, हाथ, हरकत
हकीकत और अब समग्र चेतना
छटपटाने लगी उस अंधेरे में।
मैं निरीह, निराश, असहाय, अनाथ
चीख रहा हूँ इस अनिच्छित घेरे में ।
मेरे क्रन्दन के सिवाय सुनाई पड़ रहा है
उनका धूर्त अट्टहास
वे भी सटे ही बैठे हैं
ठीक मेरी चेतना के आसपास।
कितने खुश हैं वे
मेरे इस हाल पर
उनका सुख यह है कि
उन्होंने पोत दिया है अँधेरा
एक जिन्दा मशाल पर।
और तभी मैं सोचता हूँ
यह ‘मैं’ केवल मैं ही नहीं
शायद ‘तुम’ भी हो।
क्योंकि तुम केवल ‘तुम’ ही नहीं
भले मानस की दुम भी हो।
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‘भावी रक्षक देश के’ के बाल-गीत यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगले गीतों की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।
वंशज का वक्तव्य (कविता संग्रह)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - ज्ञान भारती, 4/14, रूपनगर दिल्ली - 110007
प्रथम संस्करण - 1983
मूल्य 20 रुपये
मुद्रक - सरस्वती प्रिंटिंग प्रेस, मौजपुर, दिल्ली - 110053
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