यह संग्रह, राष्ट्रकवि रामधरी सिंह दिनकर को समर्पित किया गया है।
आज खड़ा हूँ मैं
यह चिड़िया का,
यह कौए का, यह बिल्ली का
ऐसा कह कर नहीं किसी ने
मुझको कोई कौर खिलाया।
चन्दा मामा जो कि नीम के पीछे
छिपा-छिपा रहता था,
कौर खिलाती बेला मुझको हाय!
किसी ने नहीं दिखाया।
नहीं किसी ने अपने हाथों
काजल पाउडर शाला जाते समय लगा कर
मेरे मुँह का रंग निखारा
ना रक्खा बस्ते में
रोटी और मुरब्बे का वह मीठा डिब्बा
और राह में रोज झुलसते
मेरे नंगे नह्ने पैरों को, लगा-लगा ममता का मरहम
आँखों-आँखों से दुलरा कर
हाय! किसी ने नहीं सँवारा।
झोपड़पट्टी के घेरों में
मेरा यह तन कैसे बढ़ता रहा
नहीं समझ पाया हूँ अब तक?
पता नहीं मैं इस रहस्य को
ठीक तरह से समझ सकूँगा कब तक?
जब यन्त्रों से जूझ-जूझ कर
मेरा वह फौलादी बापू
थका हुआ, हारा-सा, टूटा
अपना कागज-तन लेकर के घर को आता
पीढ़े पर सर रखता
टिन टप्पर तक पग पसारता
घर की खपरैलें निहारता
और खींचता कश बीड़ी के
किन्तु अँधेरे की आहट सुनते ही
झट से उठता
तव मुझको समझाता कहता
‘चलो! पढ़ाई करो, और हो जाओ बाबा साहब जैसे,
हम जैसे मत सड़ो।’
किन्तु वह मुझको नहीं सदा देखा करता था
दरवाजे को
और मुझे अनदेखा करके डाँट पिलाता ।
घासलेट की बदबू देती
मद्धिम ढिबरी के प्रकाश में
शुरु पढ़ाई होती मेरी
कड़ी धूप के सीने पर रख पाँव
पड़ोसी की कचरा पेटी से
गर्दन में बोरा लटकाए
काँच और लोहे के टुकड़े
बीन बीन कर ले आती माँ
किसी कबाड़ी को बेचा जाता
फिर यह सारा धन
ताकि जले चूल्हा, घर ईंधन आये
पेट भरे।
चूल्हे में लकड़ी सुलगाते
देखा करती थी माँ मुझको नित विद्या पाते।
नहीं धुआँ होता था तो भी
उसकी आँखों में आँसू होते थे
बिना किसी कारण ही
उधर लगी रोटी पर थपथप
और इधर अक्षर उड़ने लगते थे पुस्तक से
आँतें जल उठतीं रोटी की सुगन्ध से
और बाप की कड़ी निगाहें जो कि
अभी तक होती थीं मुझ पर याकि पढ़ाई पर
रोटी जैसी नरम-गरम हो जाती
बाप गरजता रहता फिर फिर
‘चलो! उठो अब खाना खा लो
बडे सवेरे जल्दी उठना।’
एक बार फिर फूल-फूल जाती
जर्मन की वह पिचकी थाली।
अनायास ही हाथ लगी जब ‘बाल भारती’
वही पाठ्यपुस्तक बचपन की
पढ़ कर उसमें देख देवता का गबरू बच्चा
भौंचक्का रह गया आज मैं।
पूरा बचपन याद आ गया और हँसा मैं
भूतकाल को जब-जब खोदो
फूट-फूट पड़ते हैं ऐसे खारे झरने
आज खड़ा हूँ मैं समर्थ हाथों में कूँची लेकर
अपने सारे दुख-दर्दों का विश्व रँगूँगा इसी भीड़ में
रहूँ कहीं भी
तोड नहीं सकता हूं मैं अतीत से जुड़ी नाल
वो देखो मेरे स्वागत में श्रद्धानत है
स्वर्ण-प्रभा से सिद्ध-प्रभासित
शुभ भविष्य का पुण्य-भाल।
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यह कौए का, यह बिल्ली का
ऐसा कह कर नहीं किसी ने
मुझको कोई कौर खिलाया।
चन्दा मामा जो कि नीम के पीछे
छिपा-छिपा रहता था,
कौर खिलाती बेला मुझको हाय!
किसी ने नहीं दिखाया।
नहीं किसी ने अपने हाथों
काजल पाउडर शाला जाते समय लगा कर
मेरे मुँह का रंग निखारा
ना रक्खा बस्ते में
रोटी और मुरब्बे का वह मीठा डिब्बा
और राह में रोज झुलसते
मेरे नंगे नह्ने पैरों को, लगा-लगा ममता का मरहम
आँखों-आँखों से दुलरा कर
हाय! किसी ने नहीं सँवारा।
झोपड़पट्टी के घेरों में
मेरा यह तन कैसे बढ़ता रहा
नहीं समझ पाया हूँ अब तक?
पता नहीं मैं इस रहस्य को
ठीक तरह से समझ सकूँगा कब तक?
जब यन्त्रों से जूझ-जूझ कर
मेरा वह फौलादी बापू
थका हुआ, हारा-सा, टूटा
अपना कागज-तन लेकर के घर को आता
पीढ़े पर सर रखता
टिन टप्पर तक पग पसारता
घर की खपरैलें निहारता
और खींचता कश बीड़ी के
किन्तु अँधेरे की आहट सुनते ही
झट से उठता
तव मुझको समझाता कहता
‘चलो! पढ़ाई करो, और हो जाओ बाबा साहब जैसे,
हम जैसे मत सड़ो।’
किन्तु वह मुझको नहीं सदा देखा करता था
दरवाजे को
और मुझे अनदेखा करके डाँट पिलाता ।
घासलेट की बदबू देती
मद्धिम ढिबरी के प्रकाश में
शुरु पढ़ाई होती मेरी
कड़ी धूप के सीने पर रख पाँव
पड़ोसी की कचरा पेटी से
गर्दन में बोरा लटकाए
काँच और लोहे के टुकड़े
बीन बीन कर ले आती माँ
किसी कबाड़ी को बेचा जाता
फिर यह सारा धन
ताकि जले चूल्हा, घर ईंधन आये
पेट भरे।
चूल्हे में लकड़ी सुलगाते
देखा करती थी माँ मुझको नित विद्या पाते।
नहीं धुआँ होता था तो भी
उसकी आँखों में आँसू होते थे
बिना किसी कारण ही
उधर लगी रोटी पर थपथप
और इधर अक्षर उड़ने लगते थे पुस्तक से
आँतें जल उठतीं रोटी की सुगन्ध से
और बाप की कड़ी निगाहें जो कि
अभी तक होती थीं मुझ पर याकि पढ़ाई पर
रोटी जैसी नरम-गरम हो जाती
बाप गरजता रहता फिर फिर
‘चलो! उठो अब खाना खा लो
बडे सवेरे जल्दी उठना।’
एक बार फिर फूल-फूल जाती
जर्मन की वह पिचकी थाली।
अनायास ही हाथ लगी जब ‘बाल भारती’
वही पाठ्यपुस्तक बचपन की
पढ़ कर उसमें देख देवता का गबरू बच्चा
भौंचक्का रह गया आज मैं।
पूरा बचपन याद आ गया और हँसा मैं
भूतकाल को जब-जब खोदो
फूट-फूट पड़ते हैं ऐसे खारे झरने
आज खड़ा हूँ मैं समर्थ हाथों में कूँची लेकर
अपने सारे दुख-दर्दों का विश्व रँगूँगा इसी भीड़ में
रहूँ कहीं भी
तोड नहीं सकता हूं मैं अतीत से जुड़ी नाल
वो देखो मेरे स्वागत में श्रद्धानत है
स्वर्ण-प्रभा से सिद्ध-प्रभासित
शुभ भविष्य का पुण्य-भाल।
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‘भावी रक्षक देश के’ के बाल-गीत यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगले गीतों की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।
वंशज का वक्तव्य (कविता संग्रह)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - ज्ञान भारती, 4/14, रूपनगर दिल्ली - 110007
प्रथम संस्करण - 1983
मूल्य 20 रुपये
मुद्रक - सरस्वती प्रिंटिंग प्रेस, मौजपुर, दिल्ली - 110053
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा की पोती।
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।
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