सरोकार से दूर हमारा मीडिया

(मेरी यह टिप्पणी ‘जनसत्ता’ के 19 जनवरी 2014 के अंक में ‘प्रतिक्रिया’ स्तम्भ के अन्तर्गत प्रकाशित हुई थी। आज अचानक सामने आई। इसे पढा तो इसकी प्रासंगिकता जस की तस अनुभव हुई। कोई जरूरी नहीं कि आपको भी ऐसा ही लगे। इसमें दो-एक वाक्यों का सम्पादन कर दिया गया है। जनसत्ता में टिप्पणी का शीर्षक ‘सरोकार से दूर’ दिया गया था। यहाँ मैंने इसमें ‘हमारा मीडिया’ और जोड़ दिया है। यह टिप्पणी प्रकाशन के समय मोदी भारत के प्रधान मन्त्री नहीं बने थे।)

मीडिया अपनी भूमिका भूला भले न हो, पर अपनी दिशा से भटक गया लगता है। इलेक्ट्रॉनिक समाचार चैैनलों के बीच गलाकाट कारोबारी होड़ के चलते हर कोई ‘नम्बर एक’ बनने की जुगत में भिड़ा हुआ है। ‘लोगों के साथ जो हो रहा है’ उसे तो सामने लाया ही जाना चाहिए, पर ‘लोगों को कैसा होना चाहिए’ - इस तकाजे को भी नहीं भूला जाना चाहिए।

साहित्य अगर समाज का दर्पण है तो मीडिया इससे तनिक आगे बढ़ कर समाज को दिशा देने वाला बल्कि समाज को आकार देने वाला होता है। लेकिन हमारा मीडिया ‘समाज निर्माता’ की अपनी इस भूमिका (बल्कि ‘जिम्मेदरी’) को बिलकुल भूल गया लगता है। ‘जो हो रहा है’ से परे हट कर आज वही कहा-दिखाया जा रहा है,

जो लोगों को अच्छा लगता है या जो लोग सुनना-देखना चाहते हैं। इसी के चलते हमारा मीडिया, खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, मद्रासी फार्मूले वाला मुम्बइया सिनेमा बनने को उतावला नजर आ रहा है।

पूरा देश आज काँग्रेस और उसके नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के प्रति घृणा-भाव से उफन रहा है। मोदी इस घृणा-भाव का प्रकटीकरण लोक-लुभावन अन्दाज में करते हैं। जो लोगों के मन में है, वही सब चाशनी में तर करके बोलते हैं। लोगों को अच्छा लगता ही है। यही  ‘लोगों को अच्छा लगना’ हमारे मीडिया की प्राण-वायु और लक्ष्य बन गया है। इसी के चलते किसी भी काँग्रेसी की, और इन दिनों तो किसी ‘आप’ वाले की भी, कही बात का बतंगड़ बनाना, मीडिया का न केवल स्वाभाविक काम, बल्कि लगता है, जिम्मेदारी भी बन गया है।

इसके ठीक विपरीत, मोदी की कही अनेक अनुचित और असत्य बातों की ओर से आँखें मूँद ली जाती हैं। एक ओर चिन्दी का थान बना लिया जाता है और दूसरी ओर पहाड़ भी नजर नहीं आता। और तो और, कोई यह भी पूछना नहीं चाहता कि सारी दुनिया में खोट बता रहे, सबको भ्रष्ट घोषित कर रहे मोदी के पास अपना कार्यक्रम, अपनी आर्थिक नीतियाँ क्या हैं? क्या परनिन्दा ही उनका एजेण्डा है?

दरअसल, मीडिया आज शुद्ध व्यापारी की भूमिका में आ गया लग रहा है। किसी जमाने में अखबारों के मालिक केवल अखबार चलाया करते थे। अखबार ही उनका एकमात्र व्यापार होता था। तब

उन्हें अपने अखबार की विश्वसनीयता और साख की चिन्ता होती थी। आज स्थिति बदल गई है। अब कारपोरेट घरानों ने मीडिया पर कब्जा

कर लिया है। वे अपने दूसरे उद्योग-धन्धों को बचाने और उन्हें बढ़ाने में मीडिया का उपयोग करने लगे हैं। पत्रकारिता की नैतिकता और

ऊँचे मापदण्ड इनके लिए फिजूल की बातें हो गई हैं। अपने धन-बल पर इन्हें इतना अधिक विश्वास है कि ‘लोग कया कह रहे हैं’ को पीछे छोड़ कर ये ‘लोग क्या कहें और क्या सोचें’ यह तय करने लगे हैं। आज तो टीआरपी और मुनाफा मीडिया संस्थानों का एकमात्र लक्ष्य हो गया है। यही कारण है कि चुनावों की आहट होते ही कई नए चैनल बाजार में उतर आते हैं।

आज मीडिया वही कहता-बताता है, जिसे कहने-बताने में उसे कोई जोखिम मोल नहीं लेना पड़ता या जिसका उसे प्रत्यक्ष लाभ मिलने की गुंजाइश रहती है। यह सावधानी बरतने में वह गैर-वाजिब बातों को भी प्रश्रय देने लगता है। मसलन, मोटर साइकिल पर तीन लोगांे का एक साथ सवारी करना वर्जित है, पर तीन लोगों को बिठा कर ले जा रही मोटर साइकिल अगर किसी बड़े वाहन से टकरा जाए तो वहाँ बड़े वाहन वाला ही जिम्मेदार और दोषी करार दिया जाता है। कोई भी, एक बार भी नहीं कहता कि मोटर साइकिल चालक ने भी तीन लोगों को बिठा कर गलती की थी।

नागरिकता बोध विकसित करने की अपनी जिम्मेदारी हमारा मीडिया पूरी तरह भूल चुका है। अतिक्रमण प्रत्येक कस्बे-नगर और वहाँ के प्रशासन के लिए बहुत बड़ी समस्या है। अतिक्रमणों को चिह्नित करते हुए मीडिया पहले तो प्रशासन की अकर्मण्यता के समाचार छापता-दिखाता है, लेकिन जब भी अतिक्रमण हटाने का अभियान चलाया जाता है तो समूचा मीडिया अतिक्रमण करने वालों के पक्ष में उतर आता है। किसी का नाम मतदाता सूची में न होने पर हंगामा खड़ा कर दिया जाता है, लेकिन जब भी निर्वाचन नामावलियों के सुधार का काम चल रहा होता है तो मीडिया इस बारे में किसी को न तो बताता है और न ही लोगों के अपने नाम जुड़वाने-जँचवाने के लिए कोई अभियान चलाता है। ऐसा वह तभी करता है जब निर्वाचन आयोग उसे विज्ञापन जारी करता है। यानी जहाँ उसका लाभ है, वहीं उसके जनसरोकार भी उजागर होते हैं।

दरअसल, हमारा मीडिया मनममानी पर उतर आया जान पड़ता है। उचित-अनुचित का अन्तर करना, अनुचित को निरस्त और उचित को प्रोत्साहित करने का आह्वान करना, नागरिकता बोध विकसित करने जैसी मूलभूत बातें हमारे मीडिया की चिन्ता और प्राथमिकता सूची में कहीं नजर नहीं आतीं।

इसी के चलते मोदी और उनके तमाम समर्थको की गैर-वाजिब बातों की अनदेखी की जा रही है। हमारा मीडिया आज हवा का रुख देख कर चल रहा है और अपने कल के बचाव में लगा नजर आ रहा है। वस्तुपरक भाव की निरपेक्षता-निष्पक्षता अतीत की चीज होती जा

रही है। स्थिति यह है कि कैमरों के सामने कही अपनी बात से पलटने वाला नेता, उसकी बात को तोड़-मरोड़ कर पेश करने का आरोप मीडिया पर लगाता है और समूचा मीडिया हँसते-हँसते उसे झेल कर स्वीकार करता रहता है। ऐसा आज तक नहीं हुआ कि ऐसे झूठे आरोप लगाने वाले का बहिष्कार करने का साहस हमारे मीडिया ने किया हो।

हमारा मीडिया आज बाजार के दबावों के आगे झुकता नजर आ रहा है। देश और लोकतन्त्र के लिए इसे अच्छा संकेत नहीं कहा जा सकता। मीडिया को लोगों की चिन्ता करनी चाहिए। लोग रहेंगे तभी बाजार भी रहेगा। बाजार का अस्तित्व ही लोगों पर टिका हुआ है। ऐसे में हमारे मीडिया को वस्तुपरक नजरिया अपनाना चाहिए। गलती को गलती मानना चाहिए न कि ‘इसकी गलती तो गलती’ और “उसकी गलती, गलती नहीं’ का व्यवहार किया जाए।

-----



 

 


No comments:

Post a Comment

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.