(कृपया, पढ़ते समय यह बात विशेष ध्यान में रखिएगा कि यह दादा के ‘बालकवि’ नामकरण की घटना नहीं हैं। यह वह पहली घटना है जब दादा के ‘कवि’ को अनुभव किया गया और जब दादा ने भी खुद को कवि अनुभव किया। यह आलेख दादा का ही लिखा हुआ है।)
स्कूलों में तब प्रार्थना, ड्रिल, खेलकूद और बागवानी के पीरियड अनिवार्य होते थे। लेकिन साथ ही हमारे स्कूल में हर माह एक भाषण प्रतियोगिता भी होती थी। यह बात 1940 की है। मेरे कक्षा अध्यापक श्री भैरव लाल चतुर्वेदी थे। रंग साँवला, वेश धोती-कुर्ता और स्कूल आते तो ललाट पर कुमकुम का टीका लगा होता था। हल्की नुकीली मूँछें और सफाचट दाढ़ी उनका विशेष श्रृंगार था। मूलतः मेवाड़ राजस्थान निवासी होने से हिन्दी, मालवी, निमाड़ी और संस्कृत का उपयोग धड़ल्ले से करते थे। कोई भी हेडमास्टर हो, सही बात पर भिड़ने से नहीं डरते थे।
एक बार भाषण प्रतियोगिता का विषय आया ‘व्यायाम’।
चौथी कक्षा की तरफ से चतुर्वेदी जी ने मुझे प्रतियोगी बना दिया। साथ ही इस विषय के बारे में काफी समझाइश भी दी। यूँ मेरा जन्म नाम नन्दरामदास बैरागी है। ईश्वर और माता-पिता का दिया हुआ सुर बचपन से मेरे पास है। पिताजी के साथ उनके चिकारे (छोटी सारंगी) पर गाता रहता था।
मुझे व्यायाम की तुक ‘नन्दराम’ के साथ जुड़ती नजर आई। मैं गुनगुनाया ‘भाई सभी करो व्यायाम’। इसी तरह की कुछ पंक्तियाँ बर्नाइं और अन्त में अपने नाम वाली पंक्ति जोड़ी-
कहता है नन्दराम,
सभी करो व्यायाम,
इन पंक्तियों को गा-गाकर याद कर लिया और जब हिन्दी के अध्यापक पं. श्री रामनाथजी उपाध्याय को सुनाया तो वे भावविभोर हो गए। उन्होंने प्रमाण-पत्र दिया कि ‘यह कविता है। खूब जियो और ऐसा करते रहो।’
अब प्रतियोगिता का दिन आया। हेडमास्टर श्री साकुरीकर महोदय अध्यक्षता कर रहे थे। प्रत्येक प्रतियोगी का नाम चिट निकालकर पुकारा जाता था। चार-पाँच प्रतियोगियों के बाद मेरा नाम आया। मैंने अच्छे सुर में अपनी छन्दबद्ध कविता ‘भाई सभी करो व्यायाम’ सुनाना शुरु कर दिया। हर पंक्ति पर सभागार हर्षित होकर तालियाँ बजाता रहा। मैं अपना स्थान ग्रहण करता तब तक सभागार हर्ष, उल्लास और रोमांच से भर चुका था। चतुर्वेदी जी ने मुझे हवा में उछाला और कन्धों पर उठा लिया।
जब प्रतियोगिता पूरी हुई तो निर्णायकों ने अपना निर्णय अध्यक्ष महोदय को सौंप दिया। सन्नाटे के बीच निर्णय घोषित हुआ। हमारी कक्षा हार चुकी थी, छठी कक्षा जीत गई थी। इधर चतुर्वेदी जी साक्षात परशुराम बनकर निर्णायकों के सामने अड़ गए। वे भयंकर क्रोध में थे और उनका निर्णायक मत था कि उनकी कक्षा ही विजेता है।
कुछ शान्ति होने पर बताया गया कि यह भाषण प्रतियोगिता थी जबकि चौथी कक्षा के नन्दराम दास ने कविता पढ़ी है, भाषण नहीं दिया। कुछ तनाव कम हुआ। इधर अध्यक्ष जी खड़े हुए और घोषणा की - ‘कक्षा चौथी को विशेष प्रतिभा पुरस्कार मैं स्कूल की तरफ से देता हूँ।’ सभागार फिर तालियों से गूँज उठा। चतुर्वेदी जी पुलकित थे और रामनाथजी आँखें पोंछ रहे थे। मेरे लिए पहला मौका था जब मुझे माँ सरस्वती का आशीर्वाद मिला और फिर कविता के कारण ही आपका अपना यह ‘नन्दराम’ ‘बालकवि’ हो गया।
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अपने प्रिय कवि के बारे में पढ़ना, उनकी कविताओं को पढ़ना बहुत अच्छा लगता है। आपने अपने ब्लॉग के माध्यम से कविवर्य बालकवि दादाजी की दुर्लभ रचनाओं को हम तक पहुँचाया है। आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
ReplyDeleteमेरी रीडिंग लिस्ट में दिखते ही पढ़ लेती हूँ। टिप्पणी तो क्या करूँ, इतनी योग्यता मुझमें नहीं है। बस पढ़कर भावविभोर होती रहती रहती हूँ। राजस्थानी होने के कारण मैं मालवी भाषा भी बहुत कुछ समझ लेती हूँ। सादर प्रणाम।
मैं देख रहा हूँ कि दादा की कविताओं की ब्लॉग पोस्टों को 'व्यू' तो दहाई में मिल रहे हैं किंतु 'कमेन्ट' प्रायः शून्य पर ही बने हुए हैं। ऐसे में आपकी इस टिप्पणी ने मेरा उत्साह बहुत ज्यादा बढ़ाया है - 'एक बराबर सवा लाख' की तरह। बहुत-बहुत धन्यवाद।
ReplyDeleteमेरी इच्छा और कोशिश है कि दादा का लिखा हुआ अधिकाधिक परिमाण में 'नेट' पर आ जाए। इस काम में दादा की (और मेरी भी) पोती रूना (रौनक बैरागी) मुझे सामग्री उपलब्ध करा रही है। किन्तु हम परिजनों में से किसी के भी पास दादा का समूचा लेखन उपलब्ध नहीं है। ऐसे में हमे दादा के चाहनेवालों से बड़ी उम्मीदें हैं। वे ही हमें दादा की रचनाएँ उपलब्ध करा दें तो बड़ी मदद मिलेगी।
आपको फिर से बहुत-बहुत धन्यवाद।