साँप की राजनीति (‘मनुहार भाभी’ की छठवीं कहानी)


श्री बालकवि बैरागी के
प्रथम कहानी संग्रह
‘मनुहार भाभी’ की छठवीं कहानी




साँप की राजनीति  

जीतने को तो विनीत भाई चुनाव जीत गए, पर जीत के दिन से लेकर आज तक उनकी नींद हराम हो गई। न किसी से कुछ कहने के, न कोई सुननेवाला। दिनचर्या का एक-एक पल पराया हो गया। घरवाले कुछ दिनों तक तो सब कुछ सहते रहे पर शनैः-शनैः एक-एक करके, उनसे परिवार के सदस्य कटते चले गए। न सोने का कोई समय निश्चित रहा, न जागने की सुध। खाने का कोई पक्का समय तो रहा ही नहीं। आधी-आधी रात तक लोग उनके आसपास, तरह-तरह के काम लेकर बैठे रहते। एक आता तो एक जाता। दो उठे और चार बैठे। लोग थे कि रात एक या दो बजे तक जब खुद ही थक जाते तो कहते, ‘अच्छा भैया! अब आप भी सोओ और हम भी आराम करते हैं।’ बिस्तर में जाते तक विनीत भाई का शरीर टूट चुका होता। माथा भिन्ना-भिन्ना कर भटार होता लगता। कनपटियाँ आवाज करने लगतीं। ओंठ सूख जाते। पर सवाल मतदाताओं और अपने क्षेत्र का था। सारा घर सो जाता और वे रात का खाना भी नहीं खा पाते थे। आखिर अपना काम निष्ठा से जो कर रहे थे। पार्टी का चाबुक अलग था। देश और प्रदेश के पार्टी संगठक अलग झकझोरते रहते थे।

पार्टी के भीतर ही, इलाके में जो उनसे असन्तुष्ट भाई लोग थे, वे अलग तरह-तरह के तीर चलाते रहते थे। विनीत भाई चुनाव क्या जीते, उनको लगा कि जिन्दगी हार गए हैं। इतना बचाव तो वे कभी भी नहीं करते थे। बेशक राजनीति में उनका लम्बा अनुभव नहीं है, पर वे हमेशा आक्रमण की ही राजनीति करते आए थे। पार्टी में वे एक मुखर और आक्रामक सदस्य माने जाते थे। इसी इलाके से वे पार्टी की तरफ से, तीन बार चुनाव संचालक रहे थे। विधायक चाहे कोई भी बना हो, पर विनीत भाई सारे क्षेत्र को अपनी हथेली की रेखाओं की तरह जानते-पहचानते थे। कार्यकर्ताओं को उन्होंने इस तरह पहचान पहचान रखा था जिस तरह से शब्दकोश अपने शब्दों को पहचानता है। वे जमीन से जुड़े बन्धु थे और यही कारण है कि इस बार उनके आलाकमान ने खुद उन्हीं को अपना उम्मीदवार बनाकर मैदान में उतार दिया था।

आसान नहीं था यह महासमर। तब भी वे जीत गए। लोगों ने कहा, ‘लहर पर बैठकर जीत गए हैं’, किसी ने कहा, ‘उड़कर लगी है’, कोई बोलता था, ‘राजयोग है तो लॉटरी क्यों नहीं खुलेगी?’ कहने वाले यूँ भी कहते थे कि अगर सही आदमी को खड़ा किया है तो जीतेगा क्यों नहीं? उनके अपने ही दल के प्रतिद्वन्द्वी कहते हैं, ‘अगर सामने वाले के साथ विश्वासघात नहीं होता तो यह बिना नींव का आदमी जीतता ही कैसे? यह विश्वासघात की जीत है। निष्ठा की जीत का तो सवाल ही नहीं है।’ कोई इसे पैसे की जीत बताता, तो कोई दारू का दारोमदार कहकर खिल्ली उड़ाता। समझदार लोग कहते, ‘पार्टी की जीत है।’ तो अधकचरे लोग कहते, ‘क्या होती है पार्टी-वार्टी? चुनाव तिकड़म और जोड़-तोड़ का खेल है। जिसने खेल लिया वह जीत गया। चुनाव जीतना है तो गली हुई चाँदी पर चलो और ढला हुआ सोना लेकर आ जाओ। चुनाव चुनाव है, जो न भाषणों से जीता जाता है, न भभूकों से। यह भेजे से जीता जाता है। जिसके पास भेजा था, वह जीत गया।’ जिसके पास खाली भभूका था, वह लटक गया।’ यानी कि हजार मुँह, हजार बातें।

एक समय था, जब खुद विनीत भाई भी इसी तरह की किसी-न-किसी बात को कहने वालों में शामिल हुआ करते थे। पर आज वे चुनाव क्या जीते, लगता है जिन्दगी हार गए हैं। सारा सुख-चैन अस्तव्यस्त होकर ध्वस्त हो गया है।

आने-जाने वालों को सारा दिन चाय पिलाओ। उनके भोजन का बन्दोबस्त करो। नाश्ते का समय हो या नहीं हो, नाश्ता तैयार रखो। फोन सुनो भी और फोन करो भी। सरकार के अधिकारियों को फोन करो, वहाँ तक तो ठीक है, पर मिलने आने वालों के दूरदराज बैठे रिश्तेदारों को भी फोन पर सम्पर्क करवाने के लिए मुस्तैद बैठो।

सबसे बड़ी कोफ्त विनीत भाई को बड़ी सुबह तब होती, जब कोई न कोई आकर उनको आवाज देकर जाता और सारे मोहल्ले को सुनाकर कहता, ‘क्या साब! अपना गुदगुदा बिस्तर छोड़ोगे भी या दोपहर तक यूँ ही पड़े रहोगे? हम पचास किलोमीटर से चलकर आए हैं। कुछ सुनवाई तो कर लो श्रीमान्।’ अब वे क्या जानें कि रात को विधायक महोदय सोए कितने बजे हैं! लोग अपने-अपने समय पर अपनी-अपनी सुविधा से आते हैं और अपनी सुविधा से ही जाते हैं। विनीत भाई को आखिर विधायकी जो करनी है।

उनकी पत्नी किस-किस के लिए कितनी बार चाय बनाती? विनीत भाई का बचाव भरा तर्क एक ही था-‘आखिर कार्यकर्ता लोग हैं। चुनाव के समय इनके आँगन में जाकर जाजम बिछानी पड़ती है। ये लोग वहाँ कुछ-न-कुछ तो खातिरदारी करते ही हैं। आज अपना समय है। अगर कोई घर आया है तो यथाशक्ति सेवा-सत्कार करने में हर्ज ही क्या है?’ और पत्नी याद दिलाती-‘यह जाजम कितने लाख की बिछी है, इसका जोड़ लगाया या नहीं? इनमें कोई है ऐसा, जिसने अपना बिल नहीं दिया हो और छाती पर चढ़कर पैसा वसूल नहीं किया हो? लोगों ने पता नहीं कितने महीनों की अपनी न जाने किस-किस चीज का इन्तजाम कर लिया है और आप हैं कि......’ और विनीत भाई हाथ जोड़कर पत्नी के ऊँचे सुर को नीचा करने की प्रार्थना करते। फिर वे बैठक में आकर उसी भीड़ में गुम हो जाते और लोगों से उनकी और गाँव की समस्याएँ सुनने लग जाते।

उन्हें अफसोस इस बात का हुआ करता था, कि इस सारे झमेले में, वे अपनी खुद के मन की पीड़ा किससे कहें? जो भी उन तक आता था, उन्हें सर्वशक्ति-सम्पन्न और महान्, समर्थ, सर्वाेच्च मानकर आता था। विधायक को भला कोई कष्ट क्यों होगा? और हो भी कैसे सकता है? कभी-कभी तो विनीत भाई की हालत यह हो जाती, कि गाँव से आया आदमी, अपनी बात बराबर बोल रहा है और वे सुनने की मुद्रा में ‘हाँ-हूँ’ करते भी लगते। पर वे ही जानते कि उनका मन कहीं किसी दूसरी उलझन में उलझा हुआ है। बोलने वाला दस-बीस मिनट बोल लेता, तब तक वे मानसिक तौर पर, एक तरह से वहाँ अनुपथित ही रहते। पर हाय री कुर्सी, मन मारकर कहना ही पड़ता था कि ‘हाँ। मैंने सब सुन लिया है और मैं समझ भी गया हूँ।’ सच का यह पाखण्ड और झूठ का यह आचरण उन्हें कचोटता रहता। पर, एक विचित्र सी लाचारी थी जिसके वे बन्दी बन चुके थे। सार्वजनिक समस्याओं के नाम पर उनके सामने कैसे-कैसे प्रकरण आते या भेजे जाते, इसकी अगर वे सूची बनाते तो रोज दो-चार दर्जन बातें ऐसी लिखनी पड़तीं, जिन पर अकेले में हँसा जा सकता था और सार्वजनिक तौर पर रोया जाना जरूरी था।

अब यह भूरा बा वाला मामला ही लो! 

बैठक में एक दिन भूरा बा अपने साथ शिवम बा को लेकर आते हैं। दोनों तरफ से राम-राम होती है। विनीत भाई बैठक में बैठे, चार-पाँच लोगों को चुप करवाते हुए सबसे पहले भूरा बा को सुनते हैं। भूरा बा कुछ बोलें, उससे पहले वे चाय का प्याला पेश करते हैं। पिछले आले में रखे बीड़ी के बण्डल की तरफ इशारा करते हैं। ना-ना करते हुए भी भूरा बा और शिवराम बा चाय से सनी मूँछें पोंछते हुए अपनी-अपनी बीड़ियाँ सुलगाकर अपनी समस्या सामने रखते हैं।

‘एमेले साहब, आप हमारे गाँव चलो। आज ही। इसी वक्त। टालना मत। सवाल हमारी जिन्दगी और मौत का है। क्यों, ठीक है ना शिवराम बा?’ भूरा बा बोलते हैं।

‘ठीक है।’

‘बात क्या है? मुझे काम तो बताओ।’ विनीत भाई पूछते हैं।

‘गए बीस दिनों से, एक काला भुजंग (साँप) मेरे खेत की मेड़ पर बैठा है। आषाढ़ माथे पर है। दस बीघे का मेरा खेत पड़त रह जाएगा। न वह साँप कहीं जाता है, न कोई खेत की तरफ जा सकता है। सारे गाँव के लोगों ने रास्ता ही बदल दिया है। कहने वाले कह रहे हैं कि मेरे खेत की दूसरी मेड़ पर इसकी नागिन भी चक्कर लगा रही है और इस जोड़े ने.......’ भूरा बा अपनी सार्वजनिक समस्या खोलकर सामने रख देते हैं।

‘इसमें मैं क्या करूँ?’

‘आप एमेले हैं। आप नहीं करेंगे तो कौन करेगा? सारा गाँव घबरा रहा है। रास्ता आपको ही निकालना है।’ शिवराम बा ने अपना पत्ता चला।

‘मेरी पूरी फसल का सवाल है। आसपास वालों ने खेत तैयार कर लिए। एक मेरा ही खेत है जो इस नागराज के चक्कर में पड़त पड़ा है। आपको कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा। या तो आप उस साँप को वहाँ से हटवाओ या उसको बाँबी में घुसवाओ।’ भूरा बा बहुत चिन्तातुर लगे।

विनीत भाई की जमीन खिसक गई। मन-ही-मन सोचा - ‘मैं कोई कालबेलिया हूँ जो पुंगी बजाकर उसे वहाँ से हटा दूँगा या बाँबी में घुसा दूँगा?’ पर वे बोले कुछ नहीं। सुनते रहे।

सारी बैठक में एक खुसुर-पुसुर पसर गई। सब विनीत भाई की तरफ तरह-तरह की नजरों से देखने लगे - ‘देखें! अब विधायकजी क्या करते हैं?’ विनी भाई को समझ नहीं पड़ा कि समस्या व्यक्तिगत है या सार्वजनिक! यह भी अनुमान नहीं लग रहा था कि यह राजनीतिक लफड़ा है या प्रशासनिक! आए दिन विनीत भाई का साबका तरह-तरह के मामलों से पड़ता है, पर यह ‘साँप को बाँबी में घुसेड़नेवाला केस’ तो आज ही सामने आया है। 

उन्होंने कोशिश की कि मामला जड़ से मालूम हो जाए। पूछा - ‘जब तीन हफ्तों से यह साँप आपकी मेड़ पर बैठा है तो आप पहले क्यों नहीं आए? इतने दिन तक क्या करते रहे? क्या वह रात-दिन वहीं पड़ा रहता है? अगर ऐसा है तो वह भूख से मर क्यों नहीं गया? बीमार-वीमार होगा। कीड़ा है। चला जाएगा। परेशान होने की क्या जरूरत है?’ विनीत भाई ने भूरा बा को समझाने की कोशिश की।

‘हम लोग सोचते थे कि आज नहीं तो कल और कल नहीं तो परसों यह जीव अपने आप चला जाएगा। इसीलिए इतनी देर हो गई। हो न हो यह कीड़ा बीमार नहीं है। शायद ठण्डी रात में यहाँ-वहाँ घूम-फिरकर कुछ खा-पी लेता होगा, पर सूरज नारायण के उगने से लेकर, आतमणे तक वह वहाँ का वहाँ पड़ा रहता है। थोड़ा बहुत इधर-उधर हिल-डुल जरूर लेता है। हाँ, उसने आज तक किसी को काटा या डराया नहीं!’ भूरा बा और शिवराम बा करीब-करीब समानान्तर बोलते रहे।

‘आपको मेरी याद कैसे आई? गाँववालों ने उसे मार क्यों नहीं दिया?’ विनीत भाई का सीधा सवाल था।

‘हम लोगों ने बहुत सोचा-विचारा। फिर सलाह ली। हमारे सरपंच कारूलालजी ने कहा कि यह काम विधायकजी का है। वे जरूर मदद करेंगे। रहा सवाल उसको मारने का, सो.......’ भूरा बा बोल ही रहे थे कि विनीत भाई बहुत दूर तक किसी सोच में डूबे से लगे। जैसा कि होता आया है, वे मानसिक तौर पर वहाँ से बिल्कुल अनुपस्थित हो गए।

कारूलाल सरपंच का नाम कान में पड़ते ही विनीत भाई की शिराएँ झनझना पड़ीं। वे समझ गए कि चुनावों के वक्त का बदला कारू सरपंच उनसे पूरे पाँच साल तक लेगा। हालाँकि सरपंच साहब थे विनीत भाई की ही पार्टी के आदमी। पर वे पार्टी के दूसरे खेमे में शामिल थे। उन्हें पाँच पोलिंग चार्ज में दिए गए थे और उन पाँचों पर विनीत भाई हारे थे। वे विश्वासघात का शिकार हुए थे। गए तीस सालों से कारूलाल उस पंचायत के सरपंच बनते चले आ रहे थे। लोग उन्हें कहते ही ‘कारीगर पटेल’ थे। पाँच पोलिंग का, जब कारीगर सरपंच ने विनीत भाई को, साठ हजार रुपयों का चुनावी खर्च का बिल दिया था तब कड़वाहट और बढ़ी। अन्त में, जीत के जुलूस तक बोलचाल तक बन्द हो गई। विनीत भाई को याद आया कि कारीगर के आस-पास, दाँए-बाँए रहनेवाले रंगलाल और रोशनलाल को सारा इलाका ‘रंग-रोगन’ के नाम से ही पहचानता था। कारीगर अपनी सारी कारीगरी इन्हीं रंग-रोगन के द्वारा करते थे। विनीत भाई बहुत दूर तक करीब-करीब खो से गए। 

भूरा बा ने अपने कुरते की जेब से दो-तीन कागज निकाले। उन्हें विनीत भाई के सामने फैला कर दिखाया। कहा - ‘आप खूब जाँच लो। मैं आपकी पार्टी  का आदमी हूँ। आपके चुनाव में मैं मेरे गाँव का पोलिंग एजेण्ट था। फार्म पर आपके खुद के दस्तखत हैं। वैसे भी मैं हमेशा आपकी पार्टी को ही वोट देता आया हूँ। मेरा यह काम आपको किनारे लगाना ही होगा। वर्ना मेरी जग-हँसाई होगी। लोग आपको भी क्या कहेंगे?’ यानी कि भूरा बा फैलते ही जा रहे थे। साँप भले ही सात फुट का होगा, पर उनकी बात सत्तर फुट लम्बी होती जा रही थी।

परेशान विनीत भाई ने, न जाने क्या-क्या सोचा। वे इस समस्या को अपने दल की पैदा की गई शुद्ध धड़ेबाजी की, राजनीति की, समस्या मानते थे। बात-न-बात का नाम, पर कारीगर ने अपनी कारीगरी दिखा ही दी थी।

‘भूरा बा, मैं इसमें क्या कर सकता हूँ? आप ही बताओ? विनीत भाई ने एक चांस और लेना चाहा। शायद भूरा बा मान जाएँ।

‘आप कुछ नहीं कर सकते हो, तो फिर कौन कर सकता है? आखिर हम गरीबों का कौन धणी-धोरी है? बोलो भाई! आप सब भी कुछ तो मेरी मदद करो?’ भूरा बा ने बैठक में चारों तरफ नजर फेंकते हुए, बीड़ी का टोटा बुझाते-बुझाते अपनी गुहार फिर से लगाई।

हार कर विनीत भाई ने फोन का चोंगा उठाया। पहले चाहा कि तहसीलदार से बात हो जाए। पर वे तहसील के दौरे पर थे। भाग्य की बात कि दूसरे नम्बर पर सिविल एस.डी.ओ. रघुवीर मिल गए। विनीत भाई ने उनको बुलवाया। भूरा बा और शिवरामजा की आँखों में चमक आ गई। आखिर एमेले हैं। कार्रवाई कैसे नहीं होगी? झक मारकर सरकार को सुनना होगा। विनीत भाई रघुवीरजी की प्रतीक्षा में दूसरे लोगों की. बातें सुनने लगे।

एक बीड़ी पीने पुरता समय भी नहीं बीता था कि एस.डी.ओ. साहब की जीप बाहर आकर रुकी । रघवीरजी भीतर आए। नमस्कार-प्रणाम हुआ। बाएँ रघुवीरजी को बैठाया। फिर शुरु से अन्त तक नाग देवता का सारा किस्सा सार्वजनिक समस्या बनाकर सुनाया। चाहा कि सरकार इसमें कछ करे। गाँव की जनता बेहद परेशान है। भूरा बा का खेत पड़त रह जाएगा। कुछ-न-कुछ रास्ता तो निकाला ही होगा। कुछ करो भाई। आपकी, मेरी, सरकार की और जनता की, सभी की लाज-मरजाद का सवाल है! 

रघुवीरजी को लगा कि विधायकजी फँस गए हैं। उन्होंने बहुत आसानी से कहा - ‘इसमें कौन सी बड़ी बात है सर! आप हुकुम दें। मैं अपने चौकीदार करीम चाचा को भेज देता हूँ। बन्दूक से सारा मामला निपटा देगा। परेशान होने की कोई बात ही नहीं है। मैं अभी जीप से पार्टी रवाना कर देता हूँ। चलो भूरा बा! उठो!’ कहकर रघुवीरजी ने उल्लास से  आँखें चमकाते सारी बैठक की तरफ देखा।

समस्या का यह निदान सुनते ही भूरा बा ने हाथ जोड़ लिए। काँपते हुए कहने लगे - ‘सरकार! अगर नागराज की हत्या ही करवानी होती तो गाँव में कौन सी करीम चाचाओं की कमी है?  कोई भी दो लट्ठ जमा देता। पर कारीगर सरपंच और गाँव का कहना है कि यह ऐसा-वैसा मामला नहीं है। वह नाग भी ऐसा-वैसा नाग नहीं है। उसके फन पर तिलक है। वे साक्षात नाग देवता हैं। गाँव की बहू-बेटियाँ और सुहागनें तो रोज उनकी पूजा करने, गीत गाती हुई जाने लगी हैं। उनकी हत्या से तो गाँव पर विनाश का संकट आ जाएगा!’

विनीत भाई नए सिरे से उदासी में डूबने लगे। रघुवीरजी की तरफ उन्होने नई आशा के साथ देखा। कहने लगे, ‘आप एक सक्षम ऑफिसर हैं। इस समस्या के निपटारे का आपके पास कोई सही तरीका होना चाहिए। जरा सोच-विचार कर इस संकट को दूर करने की कृपा कीजिए। मैं स्वयं उस गाँव का दौरा करना चाहता हूँ। पर तब तक यह समस्या किसी सिरे से तो लगे।’

‘तब फिर सर, इसका एक प्रशासकीय रास्ता है।’ रघुबीरजी के भीतर का नौकरशाह एकाएक जागा। उन्हें लगा कि विधायकजी घनघोर संकट में हैं और यह उनके दलीय विरोधियों का फेंका हुआ मकड़जाल है। मात्र विनीत भाई की खिल्ली उड़वाने जैसा सिलसिला है। बोले, ‘आप हुक्म करें, तो दूसरा रास्ता बहुत सरल है सर। उसमें सरपंच साहब और भूरा बा का सहयोग भी पूरा चाहिए। बोलो भूरा बा! चलें आपके गाँव? विनीतजी को भी साथ ले लेते हैं। आज ही यह मामला लग्गे लगा देंगे।’

‘आप पहले रास्ता तो कह दो एस.डी.ओ. साहब!’ भूरा बा उत्सुकता से पूछ बैठे। 

‘रास्ता क्या है, यह एक तरह से उन्हीं नागदेवता का हुक्म है। सरकार तो केवल बहाना है। रास्ता यह है कि हम लोग तहसीलदार साहब को भी साथ ले लेते हैं। पटवारीजी वहाँ हैं ही। करना बस इतना-सा है कि भूरा बा के खेत की मेड़ पर इन नागदेवता का चबूतरा बनवाना आज से ही शुरू कर देते हैं। उस पर इन नाग देवता के बराबर एक विशाल पत्थर की मूर्ति लगवा देंगे। सरपंच साहब से सारी लिखा-पढ़ी करवा लेंगे। भूरा बा तैयार हैं ही। जब तक नागराज वहाँ जीवित हैं, तब तक उनकी पूजा-अर्चना गाँव की तरफ से चल ही रही है। जब वे नहीं होंगे, तब पूजा की सारी व्यवस्था ग्राम पंचायत कर लेगी और उस दैवी चबूतरे के रख-रखाव के लिए जिस खेत की मेड़ पर वे नागराज विराजे हैं, वह खेत उन्हीं नाग देवता के नाम पर पटवारी के कागजों में चढ़ाकर नामान्तरण कर देते हैं। भूरा बा को इस जमीन के बदले सरकार दूसरी जमीन दे देगी। यह फसल जो भूरा बा की मारी जा रही है, इसका मुआवजा हम कलेक्टर साहब से मंजूर करवा लेंगे। मैं जीप भेजकर तहसीलदार साहब को बुलवा लेता हूँ। आप भूरा बा को कहिएगा कि वे यहीं बिराजें। हम सभी साथ-साथ चले चलेंगे। मैं ऑफिस से कलेक्टर साहब को इस केस को, स्पेशल केस बनाने का फोन भी कर देता हूँ। अच्छा सर, मैं आज्ञा लूँ?’ कहकर एस.डी.ओ. साहब उठने को हुए।

भूरा बा को लगा कि यह भयंकर साँप, खेत की मेड़ से उड़कर सीधा उनकी छाती पर चढ़ बैठा है। आँखों में काले-पीले आ गए। उन्होंने उठते हुए रघुवीरजी के पाँव पकड़ लिए - ‘आप जरा बैठकर पूरी बात तो सुन लें।’

विनीत भाई को समझ में आ गया कि नौकरशाही का मतलब क्या होता है। उनको यह भी लगा कि हो न हो, इस साँप की बाँबी कारीगर सरपंच की खटिया के ठीक नीचे है। अपने जेहन में एक सरसराटा-सा उनको सुनाई पड़ा, मानो साँप सरपट भागकर बाँबी में घुस रहा हो।

‘आप मेरी पूरी बात तो सुन लो सरकार।’ भूरा बा उधर रघुबीरजी के पाँव नहीं छोड़ रहे थे।

‘आपको जो कहना हो वो विधायकजी से कहो, भूरा बा। मुझे तो इनका हुक्म चाहिए। मैं इनका बुलाया आया हूँ। आप सीधे मेरे पास आते, तो बात तो मैं आपकी पूरी सुनता, पर हाँ, यहाँ बैठकर अभी तक आपने जो तीन-चार कप चाय पी है, वह हुजूर, मैं आपको नहीं पिला पाता।’

भूरा बा ने हाथ जोड़ कर, खड़े होते हुए विनीत भाई से कहा - ‘आप भले ही पूछ लो इन शिवरामजी से। मैं आपके पास आ ही नहीं रहा था। पर वह कारीगर कुत्ता है। रंग और रोगन कमीने हैं। ये सभी आपके दुश्मन हैं। पार्टी के गद्दार हैं। आज मालूम पड़ा कि ये मुझ जैसे गरीबों के हत्यारे भी हैं। मैंने बार-बार कहा कि वह एक कीड़ा है। कहीं बीमार-वीमार हो गया होगा। आ निकला है। उसको इस जगह कुछ आराम मिल रहा है। अपना समय काटकर यहाँ-वहाँ चला जाएगा। उसने आज तक किसी को काटा नहीं। वह किसी पर फुफकारा नहीं। उसने किसी को डराया नहीं। बहू-बेटियाँ जा कर उसका अबीर-गुलाल कर ही रही हैं। पड़ा है तो मेरे खेत की मेड़ पर पड़ा है। किसी के बाप का क्या लेता है? पर नरक में जाएगा यह कारीगर और कीड़े पड़ेंगे इन रंग-रोगन जैसे दलालों को। मेरा खाना हराम कर दिया। जाओ विधायकजी के पास। जाओ एमेले के पास। रोज की रट लगा रखी है। मैं तो अब समझा कि मेरा खेत छीनने का यह सारा चक्कर था। उन नाग देवता का काटा तो बच भी जाएगा, पर इस साँप का काटा तो पानी भी नहीं माँगेगा। अच्छा हुआ जो एस.डी.ओ. साहब ने मेरी आँखें खोल दीं, वर्ना होता यह विधायकजी कि मेरा खेत देवनारायण बाबाजी के नाम पर हो जाता और उसका बन्दोबस्त पंचायत अपने हाथ में ले लेती। उस कारीगर सरपंच की नजर ही काली है। झगड़ा उसका आपसे है, रोटी मेरी छीन रहा है। उसने शिवरामजी को मेरे पीछे लगाया ही इसलिए है कि मैं बिना कार्रवाई के वापस नहीं आ जाऊँ। मुझे कोई कार्रवाई नहीं करवानी है। कोई सार्वजनिक नहीं है। यह साँप, जीव-जन्तु का मामला है। घूमता-भटकता आया है, घूमता-भटकता चला भी जाएगा। आप तो इन एस.डी.ओ. साहब से कहिएगा कि न तो ये उस गाँव में पधारें और न ही वहाँ किसी तहसीलदार-वहसीलदार को भेजने की तकलीफ करें। पटवारीजी का चाय-पानी मैं कर दूँगा। आपको कसम है, जो आपने कलम चलाई!’ 

भूरा बा बिना किसी को सुने बराबर बोले जा रहे थे। न उनको शिवरामजी चुप करवा पा रहे थे, न वे विनीत भाई की कुछ सुन रहे थे। उनकी नजर बराबर एस.डी.ओ. साहब के चेहरे पर टिकी हुई थी। वे साँप और बाँबी, सभी को भूल गए थे।

और विनीत भाई!  सार्वजनिक समस्या के इस हल पर विनीत भाई खुद भी भाैंचक थे।
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कहानी संग्रह के ब्यौरे
मनुहार भाभी - कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - नीलकंठ प्रकाशन, 1/1079-ई, महरौली, नई दिल्ली-110030
प्रथम संस्करण 2001
मूल्य - 150/- रुपये
सर्वाधिकार - लेखक
मुद्रक - बी. के. ऑफसेट, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032



रतलाम के सुपरिचित रंगकर्मी श्री कैलाश व्यास ने अत्यन्त कृपापूर्वक यह संग्रह उपलब्ध कराया। वे, मध्य प्रदेश सरकार के, उप संचालक, अभियोजन  (गृह विभाग) जैसे प्रतिष्ठापूर्ण पद से सेवा निवृत्त हुए हैं। रतलाम में रहते हैं और मोबाइल नम्बर 94251 87102 पर उपलब्ध हैं।

 



 


   


  

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